ईरान कल्चर हाउस से खत्ताती को मिल रही है एनर्जी

 23 October 2019 को  Iran culture house में  एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम  खत्तीता  लिखने वालों  के लिए  हौसला अफजाई के लिए था और उन्हें इनाम से नवाजने का कार्यक्रम था।  खत्ताती की कला  याद दिलाती है नवाबो, मुगलों व अतीत की सभ्यता की।   ईरानी अंबेसडर  डॉ अली चेगेनी ने खत्ताती मुकाबले में आए लोगों को खिताब करते हुए कहा  की खत्ताती एक खूबसूरत कला है  और यह कला  बहुत कुछ सिखाती है क़दीम  ज़माने से लेकर  आधुनिक  दौर तक बहुत कुछ बताती है। खत्ताती को करीब से जानने के लिए हम यहां पर एक लेख प्रस्तुत कर रहे हैं











यूं तो लखनऊ को यहां की नवाबी इमारतों, जायकों, चिकन की कढ़ाई और तहजीबी जुबां ने खास पहचान दिलाई है। लेकिन ये शहर बस इतना भर नहीं है। इसकी खूबसूरती में यहां के बाशिंदों का हुनर भी चार चांद लगाता है। कुछ हुनर ऐसे भी हैं जो नवाबीकाल में फले-फूले और अब भी शहर का दिलकश हिस्सा बने हुए हैं। कैलिग्राफी या खत्ताती ऐसा ही एक फन है। आमतौर पर खत्ताती तकरीबन सभी मुल्कों और सभी भाषा में होती है लेकिन लखनऊ शहर की खत्ताती आला मुकाम रखती है। इसमें तहजीबी नजाकत, खूबसूरती, लचक और पुरकशिश के नायाब नमूने मिल जाते हैं। तमाम रियासतों के शौक से उपजा खत्ताती का फन इल्म और हुनर की पहचान के साथ-साथ शहर को बेजोड़ फनकारों का तोहफा देता चला गया। शहर में अब भी ऐसे फनकार हैं जो खत्ताती की परम्परा को अपने सीने से लगाए चल रहे हैं। वक्त के साथ यह फन सिमटा जरूर है लेकिन खत्म नहीं हुआ है। खत्ताती क्या है, लखनऊ और खत्ताती के रिश्ता और इससे उपजे फनकारों के किस्सों पर पेश है एक रिपोर्टः
 

खुशनवीसी से शुरू होती है यह कला

अरबी, फारसी और उर्दू में साफ और सुंदर लिखने वाले लोग खुश नवीस कहलाते हैं। इसमें खुश का मतलब है अच्छा और नवीस का मतलब, लिखने से होता है। इस तरह अच्छा और खूबसूरत लिखने की कला में माहिर लोग खुशनवीस और लिखने के फन को खुशनवीसी कहते हैं। इसी तर्ज पर जो खुशनवीस किसी लिखी हुई चीज की नकल करके उसे दोबारा लिखते थे उन्हें कातिब कहा जाता था और इस कला को किताबत करना कहते हैं। आमतौर पर लिखने को किताबत कहते हैं।

रस्म-उल-खत और खत्ताती को यूं समझें

भाषा को लिखने की विधि, लिपि कहलाती है। इसे उर्दू में रस्म-उल-खत कहते हैं। कई मरतबा इसे खत कहकर भी पुकारा जाता है। जो लोग निर्धारित खत (लिपि) के हिसाब से खुशनवीसी में माहिर होते हैं उन्हें खत्तात या कैलिग्राफर कहा जाता है और इस कला को कैलिग्राफी या खत्ताती कहते हैं। ऐसे खत्तातों को फन-ए-खत्ताती के उस्ताद का दर्जा दिया गया है। आमतौर पर अरबी, उर्दू और फारसी के अक्षर समान ही होते हैं लेकिन इन्हें पेश अलग-अलग तरीकों से किया जाता है। इन तीनों भाषाओं में तकरीबन 150 रस्म-उल-खत के नाम मौजूद हैं। इनमें कूफी, नस्ख, सुलुस, शिकस्ता या दीवानी और नस्तालीक लोगों में काफी जाने जाते हैं। खत-ए-सुलुस का नायाब नमूना आगरा में ताजमहल की शक्ल में आज भी काबिल-ए-गौर बना हुआ है।

खफी और जली अक्षर और सजावट के खुशनुमा खत

शहर के खत्तात अजीम हैदर जाफरी बताते हैं कि खत्ताती में पतले लिखे अक्षर को खफी और चौड़े और मोटे अक्षर को जली खत में लिखा होना कहते हैं। अक्सर जली खत में लिखे अक्षरों को सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि खत-ए-कूफी से फूल पत्ती, खत-ए-बहारी, जो पुरानी इमारतों में मिलती हैं, की सजावट के लिए इस्तेमाल होती है। इसे खत-ए-तुगरा भी कहते हैं। जली अक्षरों के बीच अक्सर खत-ए-गुलजार, खत-ए-माही, खत-ए-गुबार, खत-ए-नाखुन भरावन के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।

खत्ताती कला तहसीली और गैर तहसीली में बंटी रहती है

खत्ताती आमतौर पर दो तरह से होती है। तहसीली और गैर तहसीली। तहसीली खत्ताती में वो कृतियां आती हैं जो पुरानी और कायदे कानून के साथ बनाई जाती हैं। इसमें खत्तात अक्षरों के साथ अपनी कलाकारी नहीं दिखा सकता। गैर तहसीली खत्ताती में खत्तात को पूरी आजादी मिलती है। गैर खत्ताती में तुगरानवीसी सबसे पुराना रूप है। इसमें लिखावट को पहचाने हुए आकार में प्रस्तुत करते हैं। तुगरा बनाने वाले तुगरानवीस कहलाते हैं। अजीम हैदर जाफरी के मुताबिक तुगरा किसी मकसद के लिहाज से बनवाया जाता है। यहां लखनऊ में तुगरे में जानवर, फूल-पत्ती, गुलदस्ते, घर में किसी भी आकार में मकसद के तौर पर लिखावट होती है। तुगराकारी शहर में काफी नाम कमा रही है। पहले शासक अपनी मोहर, फरमान, हुक्मनामों में तुगरों का इस्तेमाल करते थे। तुगरे खत-ए-माकूस और तवामी के जरिए भी बनाए जाते हैं।

लखनऊ और खत्ताती

शहर के नामचीन खत्तात सैयद अजीम हैदर जाफरी बताते हैं कि लखनऊ शहर में खत्ताती का आगाज कब हुआ यह बता पाना मुनासिब नहीं है लेकिन खत्ताती यहां का काफी पुराना शौक रहा है। हालांकि कुछ जानकार शहर में खत्ताती का पुराना सुबूत शेख इब्राहिम चिश्ती के नादान महल के मकबरे के दरवाजे पर लगे शिलालेख को मानते हैं। सूफी संत इब्राहिम चिश्ती की मौत 1533-34 में हुई थी। यह शिलालेख फारसी में खत-ए-नस्तलीक-ए-जली में काफी खूबसूरत ढंग से लिखा गया है।

शेरशाह सूरी के सिक्के लखनवी खत्ताती के नमूने हैं

लेखक सैयद अनवर अब्बास अपनी किताब में लिखते हैं कि शहर में शेरशाह सूरी के दौर में सिक्कों की एक टकसाल स्थापित की गई थी। चौक के निकट मोहल्ला टकसाल में साल 1540-45 के बीच स्थापित इस टकसाल में ढाले गए तांबे के सिक्कों पर लखनऊ शहर की खूबसूरत खत्ताती के नमूने मिलते हैं। इस टकसाल के ढाले गए सिक्के इस वक्त कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में देखे जा सकते हैं। सैयद अनवर आगे लिखते हैं कि लखनऊ से ताल्लुक रखने वाले मुगलकालीन खत्तात चंद्र भान ब्रहमन मुगल बादशाह अकबर के दरबारी और खत्ताती के उस्ताद अब्दुल रशीद के शागिर्द थे। इनकी मौत 1808 में लखनऊ में हुई थी।

नवाबीकाल में खत्ताती कला को बढ़ावा मिला

जानकारों के मुताबिक नवाब शुजाउद्दौला के दौर में मीर अता हुसैन तहसीन उस्ताद खत्तात का काफी बोलबाला था। शुजाउद्दौला की मौत के बाद उनके बेटे आसिफुद्दौला ने जब अपनी राजधानी लखनऊ को बनाया तो वह अपने साथ नवाबी कलाएं और कलाकारों को भी लाए। इन फनकारों में खत्तात और खुशनवीस भी शामिल थे। ऐसा माना जाता है कि एक दौर था जब मुगलों का पतन हो रहा था, उस वक्त इसका फायदा उनके अधीन रियासतों को मिल रहा था। इसी कड़ी में वहां के कुछ फनकार लखनऊ की तरफ आने लगे। नवाब आसिफुद्दौला ने दिल्ली से लखनऊ की तरफ पलायन करने वाले फनकारों को न केवल दरबार में जगह दी बल्कि इज्जत भी बख्शी। इस इज्जत-ओ-अफजाई से खुश होकर दिल्ली के खत्तातों ने शहर की तरफ रुख किया।

हाफिज नूर उल्ला थे नवाब आसिफुद्दौला के अफसर-ए-आला

दिल्ली से लखनऊ की तरफ रुख करने वाले खत्तातों में सबसे अहम नाम हाफिज नूर उल्ला का है। इन्हें नवाब आसिफुद्दौला ने अपने दफ्तर-ए-इंशा का अफसर-ए-आला बनाया था। शहर के पुराने इतिहासकार और लेखक अब्दुल हलीम शरर ने अपनी किताब में हाफिज नूर उल्ला को उस दौर का आला खत्तात माना था। उनके मुताबिक हाफिज नूर के हाथ से लिखी वस्लियों की कीमत एक रुपये प्रति अक्षर आंकी जाती, जो उस दौर में एक बड़ी रकम थी। इनका हाथ से लिखा कतबा बड़े इमामबाड़े की मस्जिद के दरवाजे पर लगा है। अपने वक्त में नवाब आसिफुद्दौला ने खबरनामा जारी करने का रिवाज कायम किया था। इसकी प्रतिलिपियों के लिए खुशनवीसों की एक टोली काम करती थी। इसमें हाफिज नूर उल्ला के शागिर्द उनके बेटे हाफिज इब्राहिम और सरब सुख राय शामिल थे। दोनों शागिर्दों ने खत्ताती और खुशनवीसी की ट्रेनिंग देकर उस दौर में अच्छे और आला खुशनवीस शहर को दिए। इसमें मुंशी अब्दुल हमीद, मुंशी मंसा राम, मौलवी अशरफ अली और मौलवी हादी अली को बेहतरीन उस्ताद माना गया है।

खत्तात जो बाहर से लखनऊ आए

नवाब आसिफुद्दौला के शासनकाल में काफी सारे खत्तात बुलावे पर लखनऊ आए। इनमें लाहौर से आए खत्तात काजी नियामत उल्ला भी शामिल हैं। नवाब आसिफुद्दौला ने इन्हें अपने वली अहद मिर्जा वजीर अली का अतालीक यानि गुरु नियुक्त किया था। दिल्ली से लखनऊ आए खत्तातों में मुगल सम्राट के फरमाननवीस मिर्जा खैर उल्ला के बेटे मिर्जा मोहम्मद अली भी थे। यह खत्ताती के माने हुए उस्ताद-ए-फन थे। इनके अलावा खलीफा बक्श उल्ला, मीर निसार और मशहूर शायर सोज भी शामिल रहे। शायर इनाम उल्ला यकीन के बेटे मकबूल नबी खां भी दिल्ली से लखनऊ आए। नवाब आसिफुद्दौला के नायब हसन रजा खां के उस्ताद मियां मोहम्मदी भी खत्ताती के उस्ताद थे।

गाजीउद्दीन हैदर का मतबा-ए-सुल्तानी

सातवें नवाब गाजीउद्दीन हैदर साल 1814 में मसनद पर आसीन हुए। उन्होंने 1817 में अंग्रेजों की शह पर खुद को अवध का पहला बादशाह घोषित कर दिया। उस साल उन्होंने एक शाही छापेखाना मतबा-ए-सुल्तानी स्थापित किया था। यह टाइप प्रेस था। गाजीउद्दीन हैदर के बेटे नसीरुद्दीन हैदर ने कानपुर से अंग्रेज आर्चर को लखनऊ लाकर शाही छापे खाने में लिथो प्रिंटिंग प्रेस लगाया। इसके बाद यहां कुल बारह प्रेस चलने लगी।

मिर्जा गालिब ने किताबत के लिए दीवान यहां दिया

शहर के कातिबों की उस वक्त शोहरत का अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि अजीम कदीम शायर मिर्जा गालिब ने अपने फारसी भाषा के दीवान को दिल्ली के बजाय लखनऊ के एक उस्ताद खुशनवीस को उसकी किताबत का काम सुपुर्द किया।

मुंशी नवल किशोर कातिबों के लिए थे उम्मीद का दामन

अंग्रेजों के उभार के साथ इस कला को बहुत ज्यादा तरजीह नहीं दी। आजादी के विद्रोह के बाद लखनवी खुशनवीसों ने हैदराबाद, रामपुर जैसी रियासतों की तरफ रुख कर लिया। लेकिन 1858 में जब मुंशी नवल किशोर ने यहां आकर ड्योढ़ी आगा मीर में एक हस्तचलित लिथो मशीन लगाकर पब्लिकेशन शुरू किया तो यह खुशनवीसों के लिए अच्छा कदम साबित हुआ। उनके प्रकाशन की वजह से यहां तकरीबन 200 कतीब हो गए थे। मुंशी यहया, मुंशी हादी अली अश्क, मौलवी हाफिज अब्दुस समद, मुंशी अशरफ अली अशरफ, हामिद अली मुरस्सा रकम कुरआन की किताबत करते थे। इसी कड़ी में मुंशी आल-ए-हसन, मुंशी शिव प्रसाद वहबी, मुंशी अमीर अली नक्काश, कायम अली, अमीर अली, वजीर अली मुंशी नवल किशोर प्रेस से जुड़े रहे।

शहर में अब भी खत्ताती और तुगरानवीसी के लिए बहुत काम करने हैं- सैयद अजीम हैदर जाफरी

शहर में इक्कीसवीं सदी के आला खत्तातों में अपना नाम दर्ज करवा चुके खत्तात और तुगरानवीस सैयद अजीम हैदर जाफरी इस वक्त शीशमहल में इल्मो हुनर नाम की कोचिंग चलाकर बच्चों को खत्ताती, उर्दू, अरबी, फारसी और तुगरानवीसी की शिक्षा दे रहे हैं। उनका काम इमामबाड़ा जैनुल आबदीन के अलावा शहर के बड़े शाही इमामबाड़ों जिनमें बड़ा इमामबाड़ा, छोटे इमामबाड़े, सिब्तैनाबाद इमामबाड़े, इमामबाड़ा हजरत अब्बास, शाहनजफ इमामबाड़ों के अलावा शियों के अजाखाने भी शामिल थे, में भी हाथ से अरबी और उर्दू में दर्ज है। वह कहते हैं कि यह शौक है जिसके बारे में या तो लोग जानते नहीं है या लोगों ने इसे भुला दिया है। अगर इस फन को अहमियत दी जाए तो इसमें करने को बहुत कुछ है। सरकार और पुराने लोगों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। स्कूलों को अपने सिलेबस में खत्ताती को शामिल करना चाहिए। तभी इस फन को हमेशा के लिए जिंदा रखा जा सकता है। साभार एनबीटी

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