मां नहीं है तो गांव की खैरियत क्या पूछनी
मां नहीं है तो गांव की खैरियत क्या पूछनी
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ऐ दिल वीरानियों की क़ैफ़ियत क्या पूछनी,
मां नहीं है तो गांव की ख़ैरियत क्या पूछनी।
मेरी मां कहती थी मुझको शहंशाहे आलम,
अमीरे शहर से अपनी हैसियत क्या पूछनी।
वो चुभन और दर्द के अलावा देगा भी क्या,
फिर कांटे से उसकी ख़ासियत क्या पूछनी।
मेरे पास में गट्ठर है मेरी मां की दुआओं का,
पटवारी से मिलकर मिल्कियत क्या पूछनी।
उनकी फितरत है, हसरतों के दीप बुझाना,
हवाओं को रोककर इंसानियत क्या पूछनी।
बेशक रौंद डाला है, मेरे ख़्वाबों का बगीचा,
मग़रूर शख्श है तो हैवानियत क्या पूछनी।
अगर टूट जाए शीशा तो जुड़ता नहीं कभी,
पापी से गुनाहों की असलियत क्या पूछनी।
कहते हैं कि होता है क़िस्मत में लिखा सब,
हालात से वक़्त की शैतानियत क्या पूछनी।
ऐ मौत तू आए ना आए, जब मंज़ूरे ख़ुदा है,
हकीमों से दवा की क़ाबलियत क्या पूछनी।
मंज़िल मिले ना मिले मगर चलना ज़रूर है,
फिर रास्ते की कोई खुसूसियत क्या पूछनी।
ज़फ़र पता है बिछुड़कर कितना अकेला हूं,
मां बाप के रिश्ते की अहमियत क्या पूछनी।
-ज़फ़रुद्दीन "ज़फ़र"
एफ़-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
zzafar08@gmail.com
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