बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री मायावती सत्ता के शिखर से शून्य तक पहुंची, आखिर क्यों?

 बेताब समाचार एक्सप्रेस के लिए लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार मुस्तकीम मंसूरी की रिपोर्ट,

बसपा सुप्रीमो मायावती का इंडिया गठबंधन में शामिल न होने का फैसला क्या बसपा के वजूद को खत्म कर देगा?

लखनऊ, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के संविधान और मान्यवर काशीराम द्वारा दलित समाज में सत्ता की भूख पैदा करके जिस तरह मान्यवर काशीराम ने मायावती को उत्तर प्रदेश की सत्ता में चार बार मुख्यमंत्री बनाकर दलित समाज की आंखों में दलित प्रधानमंत्री के रूप में मायावती के लिए जो


सपना संजोया था, उस सपने को साकार होने का समय लोकसभा 2024 में पूरा होने की जो संभावनाएं दलित समाज को दिख रही थी उन करोड़ों दलितों के सपने को मायावती ने उस वक्त चकनाचूर कर दिया जब जेल जाने के डर से मायावती ने भाजपा और संघ द्वारा बिछाई गई शतरंज का मोहरा बनना स्वीकार करके इंडिया गठबंधन में शामिल होने से इनकार करते हुए अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान करके बाबा साहेब के संविधान को बदलने का भाजपा को अवसर प्रदान कर दिया है। राजनीतिक पंडितों का मानना है अगर मायावती इंडिया गठबंधन में शामिल होकर संविधान और लोकतंत्र को बचाने का संकल्प लेती तो शायद इस बार देश को मायावती की शक्ल में दलित प्रधानमंत्री मिलने के अवसर बन रहे थे। वही राजनीति के जानकारों का मानना है कि मायावती की नजरों में ना तो दलितों का सम्मान और ना ही संविधान कोई मायने रखता है। आपको बताते चलें जब तक बसपा की कमान काशीराम के हाथों में रही दलित समाज बसपा के साथ मजबूती के साथ खड़ा रहा। ग़ौर तालाब है मान्यवर काशीराम की बदौलत बसपा को वर्ष 1993 मेंभ 11.12 प्रतिशत दलित वोट के सहारे 67 सीटों पर जीत हासिल हुई, वर्ष 1996 में वोट प्रतिशत बड़ा और 19.64 प्रतिशत मतों के सहारे फिर 67 सीटों पर जीत हासिल हुई, वर्ष 2002 में तीसरी बार वोट प्रतिशत बढ़कर 23.06 प्रतिशत हुआ और 98 सीटों पर जीत हासिल हुई, इस प्रकार दलित समाज में तेजी से बढ़ती सत्ता की भूख ने वर्ष 2007 में 30.43 प्रतिशत मत देकर पूर्ण बहुमत की सरकार के लिए 206 विधायकों को जिता कर चौथी बार मायावती को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री बनाकर सत्ता प्राप्ति में बड़ा योगदान करते हुए मायावती को देश के अगले दलित प्रधानमंत्री के रूप में देखने का सपना संजो लिया। परंतु पूर्ण बहुमत की सत्ता प्राप्त होते ही मायावती काशीराम के मिशन से भटक कर अहंकारी हो गई, वहीं बसपा में सतीश चंद्र मिश्रा के बढ़ते दखल से मायावती ने काशीराम के मिशन के साथियों को एक-एक कर बसपा से बाहर करना शुरू कर दिया। परिणाम स्वरूप काशीराम के मिशन के लोगों का बसपा से बाहर होना और सतीश चंद्र मिश्रा का बसपा में बढ़ता हुआ दखल दलित मतदाताओं को मायावती से दूर करने लगा। जिसके नतीजे  वर्ष 2012 के चुनाव में देखने को मिले और,वोट प्रतिशत घटकर 25.91 प्रतिशत हो गया और 206 विधायकों से घटकर बसपा के 80 विधायक ही जीत पाए, वहीं वर्ष 2017 में वोट प्रतिशत और घटकर 22.23 रह गया और विधायकों की संख्या घटकर 19 तक सीमित हो गई, परंतु मायावती लगातार घटते दलित वोटो के प्रतिशत से बेखबर मायावती ईडी सीबीआई के खौफ़ में आकर भाजपा और संघ की शतरंज का मोहरा बनकर रह गई, काशीराम के मिशन के लोगों का बसपा से निकला जाना और सतीश मिश्रा पर मायावती का निर्भर हो जाना भाजपा को लगातार फायदा पहुंचता रहा जिसके परिणाम 2022 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिले बसपा का वोट प्रतिशत घटकर 12.88 पर पहुंच गया और केवल एक ही विधायक बसपा का जीत पाया वह भी अपने प्रभाव के कारण इस तरह सत्ता के शिखर से शून्य पर पहुंच चुकी बसपा सुप्रीमो मायावती अगर काशीराम के मिशन पर वापस नहीं लौटी तो लोकसभा चुनाव 2024 में मायावती का बचा हुआ 12.88 प्रतिशत वोट में से अगर 5 या 6 प्रतिशत दलित मायावती से खिसककर अगर भाजपा के साथ चला गया और लगातार भाजपा तीसरी बार सत्ता में वापसी करती है और संविधान बदल जाता है तो बाबा साहब के संविधान को बदलने और काशीराम के मिशन को कुचलने का श्रेय मायावती को ही जाएगा। 2024 लोकसभा चुनाव देश के दलित मतदाताओं दलित नेताओं के लिए संविधान बचाने की बड़ी चुनौती होगी। अब देखना यह है कि देश का जागरूक दलित मतदाता बाबा साहब के संविधान को बचाने के लिए आगे आएगा यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है?

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