भाई को भाई का दुश्मन बनाती हरियाणा सरकार

 (ये अंक उन बच्चों को नहीं मिलेंगे जिस घर में पति-पत्नी, भाई, बहन, सास-ससुर या परिवार में कोई भी नौकरी पर हो. क्या ये भाई की नौकरी से दूसरे भाई और बहन से अन्याय नहीं ? क्या ये माँ-बाप के नौकरी पर होने से बच्चों की प्रतिभा से अन्याय नहीं या फिर हरियाणा के मुख्यमंत्री ने अपने भाई का घर बसाने का ठेका ले रखा है और उन्होंने पति-पत्नी के बीच कभी तलाक न होने का फरमान जारी कर दिया है.)


जी हाँ, कन्फ्यूज्ड सरकार की कन्फ्यूज्ड  पॉलिसी  ने अभ्यर्थियों को कंफ्यूज कर दिया है. हरियाणा में हर भर्ती के लिए सोसियो इकोनॉमिक के अंक देने का नियम चला है. सोच कर देखिये सौ अंकों के पेपर में अगर बीस अंकों की खैरात बांटी जाये तो किसका चयन होगा?  क्या वहां कोई भी मेहनती बच्चा जिसके पास ये बीस अंक नहीं है वो टिक पायेगा?

ये अंक उन बच्चों को नहीं मिलेंगे जिस घर में पति-पत्नी, भाई, बहन, सास-ससुर या परिवार में कोई भी नौकरी पर हो. क्या ये भाई की नौकरी से दूसरे भाई और बहन से अन्याय नहीं ? क्या ये माँ-बाप के नौकरी पर होने से बच्चों की प्रतिभा से अन्याय नहीं या फिर हरियाणा के मुख्यमंत्री ने अपने भाई का घर बसाने का ठेका ले रखा है और उन्होंने पति-पत्नी के बीच कभी तलाक न होने का फरमान जारी कर दिया है.

पहली बात तो ऐसी पॉलिसी की ज़रूरत ही नहीं थी और जरूरत हुई तो किसी का गला काटकर मेरिट का अपमान करने की जरुरत क्या है ? बिना अंकों वाले अभ्यर्थी सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि एग्जाम देने का फायदा भी है या नहीं?

बिना सोचे समझे वोटों के चक्कर में कोई भी पॉलिसी बना देना, उसका परिणाम जांचे परखे बिना बस ऐसे ही लागू कर देने की वजह से आज प्रदेश की हज़ारों विवाहित महिलाओं पर गाज गिर गयी है.
जब बहन के नौकरी पर होने से भाई के सोसिओ इकनोमिक अंकों पर कोई फर्क नहीं पड़ता तो भाई के नौकरी पर होने से बहन पर क्यूँ?

भाई को भाई का दुश्मन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी है, नौकरीशुदा माँ बाप आज खुद को कोसने पर मजबूर हैं कि हमारी नौकरी की वजह से हमारे बच्चे नौकरियों से वँचित कर दिए इस सरकार ने. कोरोना वारियर्स कहकर सम्मानित करने वाली सरकार ने उनके बच्चों को दरकिनार कर दिया.. जैसे कि सज़ा मिली हो किसी जुर्म की.

भला करना अच्छी बात है, ऐसे बच्चे जो वंचित रहे, अभाव में रहे.. उनकी शिक्षा मुफ्त कर दीजिये, उन्हें फ्री कोचिंग उपलब्ध करवाइये, उनसे एप्लीकेशन फॉर्म भरने की फीस मत लीजये, उनसे बस का किराया भाड़ा मत लीजिये, उन्हें सब सुख सुविधाएं उपलब्ध करवाइये. अनाथ और विधवा को मैक्सिमम  दो अंक दे भी दीजये. बस.

लेकिन यूँही नौकरियां प्लेट में सजा कर देनी हैं तो उन बच्चों से फॉर्म भरने का अधिकार छीन लीजिये जिनके पास यह अंक नहीं हैं, ना उम्मीद रहेगी ना फिर ध्यान जाएगा यहाँ, एटलीस्ट कुछ और काम धंधा देख लेंगे.


सरकार का तर्क कि हमने ऐसे युवाओं को नौकरी देने का काम किया है जिनके घर में पहले से कोई नौकरी नहीं.  कितना मजाकिया लगता है?  क्या सरकार इस बात को अपने पर भी लागू करेगी कि हरियाणा में जिस पार्टी की अभी तक कोई सरकारी नहीं बनी उसे अब तक सरकार न बनने के लिए एक्स्ट्रा पांच सीट और बाकी की पंद्रह सीटे भी दी जाएगी.  पांच सीट अनाथ होने के लिए, पांच सीट विधवा या विधुर होने के लिए. पांच सीट लगतार राजनीतिक अनुभव के लिए?  क्या ऐसा कानून वो बना पाएंगे?  बिलकुल नहीं.

दरअसल बात ये है कि सरकार ने सस्ती लोकप्रियता के लिए एक ऐसा कानून बनाया जो राज्य के उन लोगों  को अपने आकर्षण में बाँध कर रखे जिनके घर या आस-पड़ोस में कोई नौकरी में नहीं था.  पहले उनको खुश किया गया फिर उनका क़त्ल किया गया.  ये बात इस तथ्य से जुडी है कि ये अंक केवल ग्रुप सी और डी के लिए निर्धारित किये गए जहां सामान्य परिवारों के बच्चे ही नौकरी के लिए आवेदन करते है या कम पढ़े- लिखे युवा फार्म भरते है.  ग्रुप ए और बी में ये प्रावधान सोच समझकर नहीं किया गया क्योंकि उनके लिए इन्ही नेताओं या अफसरों के बच्चे अप्लाई करते और वो इस साजिश को समझ जाते या फिर कोर्ट-कचहरी में जाकर लड़ने का माद्दा रखते तो कानून को चुनौती मिलती.

क्या किसी सरकारी नौकरी के मामले में डबल रिजर्वेशन या सौं में से बीस अंकों का फायदा पहुँचाना जायज़ है?  क्या सरकारी नौकरी न होने का परिवार के किसी एक सदस्य को फायदा पहुंचना संवैधानिक तरीके से सही है? पहला तो ये परीक्षा में बैठने वाले आवेदकों के साथ भेदभाव है.  दूसरा पांच अंक लेने वाले आवेदक के साथ धोखा है.  तीसरा उस परिवार के बाकी सदस्यों के साथ साजिश है. अगर सरकार को उन आवेदकों को ही नौकरी देनी है जिनके घर नौकरी नहीं तो उन्ही से आवेदन मांगे जाये बाकी आवेदकों को क्यों इस अंधी दौड़ शामिल किया जाता है?  

जो आवेदक एक बार ग्रुप डी में लग गया आगे के लिए उसके सारे रास्ते अब बंद हो गए.  क्योंकि अब उसे ये फायदा आगे मिलने वाला नहीं.  जैसे कि दो साल पहले लगे हरियाणा के बीस हज़ार ग्रुप डी के युवाओं के साथ हुआ जिनको योग्यता होने के बावजूद बाकी की ग्रुप सी की नौकरी से हाथ धोना पड़ा.
परिवार में अगर भाई या बहन नौकरी लग गया तो बाकी के साथ तो ये साजिश हुई ही क्योंकि पांच अंकों के अभाव में अब उनको तो नौकरी मिलने से रही.  हरियाणा भर में इन खैरात के अंको की वजह से लिखित परीक्षा के टॉपर भी नौकरी से वंचित होते देखे जा रहें है.

अब रही बात हर बार लीक होने वाले पेपरों की.  हरियाणा कर्मचारी आयोग का पिछले सात सालों में ऐसा एक भी पेपर नहीं हुआ जो लीक नहीं हुआ हो. अपवाद को छोड़कर हर पेपर के लीक होने की ख़बरें अखबारों में छपी. आयोग के कर्मचारी जेल भी गए मगर सिलसिला अब तक बदसूरत जारी है. बात साफ़ है कि सरकार भर्ती के माले में सुर्ख़ियों बटोरने के अलावा कुछ नहीं कर रही.  वो भी तब जब प्रदेश के हर महकमे में लाखों पद खाली पड़े है. अकेले शिक्षा विभाग में ही चालीस हज़ार शिक्षकों के पद खाली है.

आखिर भर्ती क्यों नहीं कर पा रही सरकार? आखिर क्यों जो भर्ती शुरू की जाती है वहां पेपर लीक के मामले हो जाते है या फिर कोर्ट में लटक जाती है?  सच तो ये है कि अगर सरकार चाहे तो सब कर सकती है.  ये सब निर्भर करता है सरकार की सोच और मंशा पर. वर्तमान सरकार को सबसे पहले सोसिओ इकोनॉमिक के क्राइटेरिया को संतुलित करना होगा. पांच  या बीस अंकों का सीधा फायदा बहुत बड़ा अंतर पैदा करता है जब प्रतियोगता कुछ पॉइंट्स की चल रही हो.


सोचकर देखिये एक सीट से अटल सरकार बन और गिर सकती है.  ये मेधावी छात्रों के साथ सोचा समझा धोखा और अयोग्य को चुनने का तरीका है.  दूसरा हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग को भंग करके नए सिरे से चुना जाये.  सालों से बैठे इस आयोग के सदस्य और  कमर्चारी इसको अपनी जागीर समझ बैठे है जो केवल अपना फायदा देखते है, प्रदेश भर के युवाओं का नहीं.  

पेपर लेने के लिए व्यवस्था को तो सरकार कभी भी सुधार सकती है. अगर उसकी मंशा पारदर्शिता की हो.  अगर ऐसा होगा तभी हरियाणा का मेधावी युवा वर्तमान सरकार और खुद पर गर्व कर पायेगा. अन्यथा ये भ्रष्ट सिलसिला  बदसूरत जारी रहेगा.
 
प्रियंका सौरभ 

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