समाजवादी से गठबंधन पर क्यों पत्ते नहीं खोल रहे है जयंत चौधरी, ए आई एम आई एम से भी हो सकता है गठबंधन ?

एस ए बेताब
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  किसान पंचायतों में लोगों की उमड़ती भीड़  और मौजूदा उत्तर प्रदेश सरकार से नाराज  किसान  यह दर्शाता है कि आगामी 2022 के चुनाव में  पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  अपार बंपर जीत दर्ज करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार को नाकों चने चबाने पड़ेंगे। यदि  पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह की तरह  जाट - मुस्लिम  समीकरण बना  तो उत्तर प्रदेश  की सियासत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बहुत बड़ी अहमियत बन जाएगी। अभी तक देखा गया है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहां से स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ही नहीं बने बल्कि वह देश के प्रधानमंत्री भी बने।  उनका  लोकतांत्रिक समीकरण  और सामाजिक  ताना-बाना  जितना मजबूत था  उसको भारतीय जनता पार्टी ने 2013 के दंगों के बाद बिल्कुल ध्वस्त कर दिया। और  पहली बार ऐसी स्थिति आई  की राष्ट्रीय लोक दल  की राजनीतिक जमीन सूख गई उस पर  फसल उगना  दूभर हो गया।  किसान आंदोलन के बाद  एक बार फिर  आशा की किरण दिखाई दे रही है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से  स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह की  सियासी विरासत को संभालने वाले उनके पुत्र  स्वर्गीय चौधरी अजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनके पोते जयंत चौधरी ने  सियासत में जो अनुभव प्राप्त किए हैं  वह उनका  सही इस्तेमाल  करने जा रहे हैं। उनके लिए  यह चुनाव  एक प्रयोगात्मक परीक्षा ही नहीं बल्कि उनकी सियासी जिंदगी को  स्थिरता की ओर ले जाएगा।  जयंत चौधरी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत में  अपनी खोई हुई जमीन पाने के लिए  दिन रात मेहनत कर रहे हैं। बुजुर्गों के आशीर्वाद से जहां  उन्हें एनर्जी मिल रही है तो वहीं भटका हुआ युवा  उनकी तरफ लौटता हुआ नजर आ रहा है। मुस्लिम समाज के  सियासी  रहनुमा के रूप में उभर रहे  ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के  राष्ट्रीय अध्यक्ष  बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी  के उत्तर प्रदेश के धुआंधार प्रचार में  युवाओं की भीड़ जिस तरह से उमड़ रही है  उससे एक संकेत साफ जा रहा है  की उत्तर प्रदेश का मुस्लिम युवा  पिछले सियासी गणित का  हिसाब जोड़ रहा है और उस गुणा- भाग में  उसे यह लगता है  की  उसकी भी सियासी पार्टी का कोई वजूद होना चाहिए।  इस सवाल के  जवाब में  मुस्लिम नौजवान  इत्तेहादुल मुस्लिमीन को  आगामी 2022 के चुनाव में उत्तर प्रदेश की सियासी पार्टी के रूप में  उतार कर  उसकी  ताकत बढ़ाकर उसे तालमेल  और हिस्सेदारी के रूप में  अपना  सियासी वजूद  दिखाना चाहते हैं।  यदि उत्तर प्रदेश में ए आई एम आई एम का गठबंधन बनता है  और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  राष्ट्रीय लोक दल व अन्य पार्टियाँ  ए आई एम आई एम से गठबंधन करती है  तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तकरीबन  100 सीटों पर इसका असर देखने को मिल सकता है।
उत्तर प्रदेश की सियासत में बीते 3 वर्षों से कई चुनाव साथ लड़ने वाले आरएलडी और सपा के बीच लगता है कि तालमेल नहीं बन पा रहा है, तभी तो आरएलडी मुखिया जयंत चौधरी ये तो कहते हैं कि कांग्रेस के साथ गठबंधन का कोई सवाल नहीं है, लेकिन सपा के साथ जाने के सवाल पर वह कहते हैं कि 2022 की बात 2022 में करेंगे. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या जयंत चौधरी के मन में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन को लेकर कोई सन्देह है, या फिर गठबंधन में अपनी सीटें बढ़वाने की उनके अपनी कोई चाल है।

साल 2018 में उत्तर प्रदेश में जब लोकसभा की सीटों पर उपचुनाव हो रहे थे तब समाजवादी पार्टी और आरएलडी के गठबंधन ने कमाल किया और कैराना सीट पर आरएलडी की तबस्सुम हसन उपचुनाव जीत गई. उसके बाद तो समाजवादी पार्टी और आरएलडी का गठबंधन इतना मजबूत हुआ कि 2019 में बसपा के साथ गठबंधन करने के बावजूद भी समाजवादी पार्टी ने 3 सीटें आरएलडी को दी थी और फिर यही साथ पंचायत चुनाव के दौरान भी देखने को मिला. लेकिन 2022 के चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी और आरएलडी के बीच गठबंधन पर कोई खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। 

आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी कई बार यह कह चुके हैं कि 2022 की बात 2022 में करेंगे जबकि इससे पहले जितने भी चुनाव हुए उसमें दोनों ही पार्टियों ने साथ आने का ऐलान काफी पहले ही कर दिया. ऐसे में एक सवाल ये उठ रहा है कि क्या किसान आंदोलन के चलते जयंत चौधरी के मन में समाजवादी पार्टी के साथ जाने को लेकर कुछ शक सुबा है. हालांकि पार्टी के राष्ट्रीय सचिव अनिल दुबे साफ तौर पर कह रहे हैं कि समाजवादी पार्टी के साथ आरएलडी का वैचारिक गठबंधन है. वैचारिक रूप से दोनों पार्टियां साथ हैं. वो ये भी कहते हैं कि जयंत चौधरी और अखिलेश यादव में अच्छी अंडरस्टैंडिंग है, और 2022 के लिए गठबंधन पर सैद्धान्तिक सहमति भी है, हालांकि सीटों पर अभी बातचीत होनी है.


वहीं राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शायद जयंत चौधरी इस बार समाजवादी पार्टी से गठबंधन में ज्यादा सीटें चाहते हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है कि इस बार किसान आरएलडी का साथ देगा। जिस तरीके से लगातार किसान आंदोलन में, किसान महापंचायतों में जयंत चौधरी शामिल हुए हैं उससे उन्हें उम्मीद है कि किसान इस बार आरएलडी का बेड़ा पार करेंगे और इसीलिए वह शायद समाजवादी पार्टी से ज्यादा सीटें चाहते हैं, इसी लिए वो अभी गठबंधन पर कुछ भी खुलकर नहीं बोल रहे हैं।

प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में अब बहुत कम दिन बचे हैं ऐसे में सियासी दल भले ही अपने पत्ते नहीं खोल रहे हो, लेकिन कई बार जनता के बीच देर से संदेश जाना भी नुकसानदायक साबित होता हैउत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. दलितों-पिछड़ों को केंद्र में सरकार में शामिल कर बीजेपी ने एक राजनीतिक दांल चल दिया है तो बसपा ने ब्राह्मण सम्मेलन शुरू कर दिया है. वहीं, सपा के साथ हाथ मिलाने के बाद आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने भी चुनावी शंखनाथ फूंक दिया है. आरएलडी अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन को दोबारा से हासिल करने के लिए जाट-मुस्लिम के साथ-साथ अन्य जातियों को जोड़कर सोशल इंजीनियरिंग का नया फॉर्मूला खड़ा करना चाहते हैं. 

जयंत चौधरी की पार्टी मंगलवार से भाईचारा सम्मेलन का आगाज मुजफ्फरनगर के खतौली से करने जा रही है. हालांकि, जयंत चौधरी का जातीय फॉर्मूला अपने दादा चौधरी चरण सिंह से काफी अलग हैं। ऐसे में देखना है कि जयंत चौधरी इस सामाजिक समीकरण के जरिए 2022 के चुनाव में कितने कारगर साबित होते हैं? 

चौधरी चरण का जातीय फॉर्मूला
बता दें कि पश्चिम यूपी की सियासत में एक समय जयंत चौधरी के दादा चौधरी चरण सिंह किंगमेकर की भूमिका में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के सीएम से लेकर देश के पीएम तक बने. चौधरी चरण सिंह ने प्रदेश और देश की सियासत में अपनी जगह बनाने के लिए 'अजगर' (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) और 'मजगर' (मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत) फॉर्मूल बनाया था. 
कांग्रेस के खिलाफ चौधरी चरण सिंह का यह फॉर्मूला पश्चिम यूपी ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में सफल रहा. आरएलडी के इस जातीय समीकरण को झटका तब लगा, जब चौधरी अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव के बीच अनबन हुई। चौधरी चरण के जातीय फॉर्मूले से पहले यादव अलग हुआ और फिर राजपूत समुदाय ने नाता तोड़ा, इसके बाद 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद सामाजिक ताना-बाना ऐसे टूटा कि जाट और मुस्लिम अलग हो गए। इतना ही नहीं, जब 2014 के बाद बीजेपी-मोदी की आंधी चली तो आरएलडी का पूरा समीकरण ही बिखर गया।

जयंत चौधरी का कास्ट फॉर्मूला
चौधरी अजित सिंह के निधन के बाद आरएलडी की कमान अब उनके बेटे जयंत चौधरी के हाथ में है. ऐसे में जयंत अपनी खोई हुई सियासी जमीन को पाने के लिए हरसंभव कोशिश में जुटे हैं. ऐसे में उन्होंने किसान पंचायत के जरिए पहले माहौल बनाया और जाट समुदाय के विश्वास जीतने की कोशिश की है। किसान पंचायत करने का बड़ा फायदा पंचायत चुनाव में आरएलडी को मिला। 
आरएलडी के प्रवक्ता अभिषेक चौधरी कहते हैं कि किसान पंचायत के बाद अब आरएलडी पश्चिम यूपी में सभी समाजों को जोड़ने के लिए भाईचारा सम्मेलन की शुरुआत कर रही है. विपक्ष हमेशा से आरएलडी को जाट समुदाय की पार्टी के तौर पर पेश करता रहा है जबकि पार्टी की कोशिश शुरू से सर्वसमाज को साथ लेकर चलने की रही है।

वह कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह का जो फॉर्मूला था उससे अलग नहीं है बल्कि उसमें हम और भी अन्य समाज के लोगों को जोड़ने का काम कर रहे हैं, क्योंकि मौजूदा सियासी हालात बदल गए हैं. समाज के सभी वर्गों में राजनीतिक चेतना जागी है और इस सम्मेलन के जरिए हम उन्हें पार्टी से जोड़ने का काम करेंगे. मुजफ्फरगनर के बाद शामली, सहारनपुर, मथुरा, मेरठ और आगरा में भी ऐसे सम्मेलन करेंगे, जिसमें पार्टी के तमाम समाज के नेता उपस्थिति रहेंगे. उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय की आबादी करीब 4 फीसदी है, जबकि पश्चिमी यूपी में यह 17 फीसदी के करीब हैं. वहीं 20 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले यूपी के पश्चिमी उत्तर प्रदेश की विधानसभा सीटों पर मुस्लिम समाज की आबादी 35 से 50 फीसदी तक है. इसके अलावा पश्चिम यूपी में गुर्जर-सैनी दो-दो फीसदी, ब्राह्मण तीन फीसदी, कश्यप दो फीसदी वोटर काफी अहम हैं. मौजूदा समय में गुर्जर, सैनी, कश्यप और ब्राह्मण बीजेपी का परंपरागत वोटर हैं, लेकिन अब इन्हें साधकर आरएलडी अपनी राजनीतिक नैया पार लगाना चाहती है।

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