आरक्षण के मामलों में कोर्ट के फैसले विरोधाभासी क्यों है ?

-------------------------------------- ---प्रियंका सौरभ  

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कुछ समुदायों को सीटों का आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है. आरक्षण पर सुप्रीम कार्ट ने ये एक बड़ी टिप्‍पणी की है. शीर्ष न्‍यायालय ने कहा है कि किसी एक समुदाय को सीटों का आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका जिसमे  मेडिकल (नीट) की उन सीटों पर 50 फीसदी ओबीसी आरक्षण देने की मांग की गई थी पर सुनवाई से मना करते हुए यह बात कही है . इसे तमिलनाडु की सभी राजनीतिक पार्टियों ने दाखिल किया था. साथ ही कोर्ट ने  ये भी कहा कि पिछड़े वर्ग के कल्‍याण के लिए सभी राजनीतिक दलों की चिंता का हम सम्‍मान करते हैं. लेकिन, आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है.

इससे पूर्व इस साल फ़रवरी माह में सरकारी नौकरियों में प्रमोशन के लिए आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण की मांग करना मौलिक अधिकार नहीं है। यह राज्य सरकार के विवेक पर निर्भर करता है कि उन्हें प्रमोशन में आरक्षण देना है या नहीं? कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार की अपील पर यह फैसला सुनाया।

वर्तमान में तमिलनाडु के सभी राजनीतिक दलों ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर की। उन्होंने चिकित्सा और दंत विज्ञान के पाठ्यक्रमों में अखिल भारतीय कोटा सीटों के लिए पिछड़े वर्गों और अधिकांश पिछड़े वर्गों के लिए 50% कोटा लागू नहीं करके केंद्र पर “तमिलनाडु के लोगों के उचित शिक्षा का अधिकार” का उल्लंघन करने का आरोप लगाया। राज्य में इस तरह के आरक्षण को लागू नहीं करने से इसके निवासियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।

अब मुद्दा ये है कि क्या आरक्षण के संबंध में दिन भर दिन आते नए फैसले  संवैधानिक प्रावधानों के बिलकुल उलट नहीं जा रहे है. अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) में कहा गया है कि समानता के प्रावधान सरकार को पिछड़े वर्गों, विशेष रूप से अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में शैक्षणिक संस्थानों या नौकरियों में प्रवेश के मामलों में विशेष प्रावधान करने से नहीं रोकते हैं।

अनुच्छेद 16 (4 ए) पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण की अनुमति देता है, जब तक कि सरकार का मानना है कि वे सरकारी सेवाओं में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।
हालाँकि 1992 के इंद्रा साहनी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने संयुक्त आरक्षण कोटा के लिए ऊपरी सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए कि वकालत को मजबूत किया था अभी कुछ माह पहले 2019 में, 103 वां संविधान संशोधन अधिनियम केंद्र और राज्यों दोनों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में समाज के ईडब्ल्यूएस श्रेणी में 10% आरक्षण प्रदान करने के लिए पारित किया गया था

वैसे तमिलनाडु में आरक्षण व्यवस्था शेष भारत से बहुत अलग है; ऐसा आरक्षण के स्वरूप के कारण नहीं, ‍बल्कि इसके इतिहास के कारण है। मई 2006 में जब पहली बार आरक्षण का जबरदस्त विरोध नई दिल्ली में हुआ, तब चेन्नई में इसके विपरीत एकदम विषम शांति देखी गयी थी। बाद में, आरक्षण विरोधी लॉबी को दिल्ली में तरजीह प्राप्त हुई, चेन्नई की शांत गली में आरक्षण की मांग करते हुए विरोध देखा गया। चेन्नई में डॉक्टर्स एसोसिएशन फॉर सोशल इक्विलिटी) समेत सभी डॉक्टर केंद्रीय सरकार द्वारा चलाये जानेवाले उच्च शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण की मांग पर अपना समर्थन जाताने में सबसे आगे रहे है।

समय-समय पर आरक्षण के लिए भारत में  मांगे उठी है। और सरकारों ने पूरा भी किया है ।  जाट आंदोलन,गुर्जर आंदोलन आरक्षण के लिए पूरे भारत में  प्रभावी रहे और सरकारों ने मांगे मानी। दरअसल आरक्षण भारत में लम्बे अरसे से एक राजनितिक मुद्दा रहा है।  

आरक्षण संविधान की धारा 16 (4) के तहत विशेष समुदायों की बेहतरी के लिए हुकूमत को नए तरीके से विकास के लिए प्रेरित करता है. आरक्षण उन तबकों के लिए रेमिडी है जो ऐतिहासिक, सामाजिक और शैक्षणिक वजहों से पिछड़े रह गए हैं. वर्तमान में ये बात सिर्फ़ एक फ़ैसले की नहीं है, ऐसे फैसलों से आरक्षण के मामलों में  दूरगामी परिणाम हो सकते हैं.

माननीय  न्यायालय का ये कहना कि कि आरक्षण एक मौलिक अधिकार नहीं है, पूर्णत विरोधाभासी है .एक तरफ कहा गया है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण पूरी तरह से राज्य सरकारों पर निर्भर है, दूसरी ओर, जब राज्य सरकार 50 से अधिक देना चाहती है तो दे सकती है .जनजातियों के लिए आरक्षण में सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि यह असंवैधानिक है। यदि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण असंवैधानिक है तो अदालत ने सवर्णों के 10 प्रतिशत आरक्षण पर तुरंत प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया?

भारत के संविधान बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने कई अवसरों पर कहा है कि भारत में न्यायाधीशों का निर्णय उनके जातीय चरित्र पर आधारित है। इसलिए, माननीय  न्यायालय को बेंच में आरक्षण या एससी / एसटी और पिछड़े वर्गों के मुद्दों पर निर्णय देते हुए इन वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहिए, ताकि लोगों का न्यायपालिका पर भरोसा मजबूत हो।

---प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

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