सरकार के दो मंत्रियों सुरेश राणा और कपिल देव अग्रवाल समेत विधायक संगीत सोम और पूर्व सांसद भारतेन्दु सिंह के मुकदमे वापसी ले लिए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जाहिर की


 नई दिल्ली- सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नेताओं  के खिलाफ दायर किया गया मुकदमा राज्य सरकार वापस ले सकती है,अगर दुर्भावना से नेताओं के खिलाफ फर्जी मुकदमा दर्ज हुआ है तो मुकदमा वापस हो सकता है. लेकिन जरूरी है कि हाईकोर्ट इस बात की समीक्षा करे कि मुकदमा वापस लेना सही है या नहीं ,मुकदमा वापसी हाईकोर्ट की मंजूरी के बाद ही हो सकती है। 

मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और सूर्य कांत की पीठ अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर इस मामले पर बुधवार को सुनवाई कर रही थी। इस मामले में कल सुप्रीम कोर्ट में कोर्ट के सलाहकार ने एक रिपोर्ट जमा की थी, जिसमें बताया गया था कि कई राज्यों ने सांसद और विधायकों के खिलाफ दर्ज अपराधिक मुकदमा वापस ले लिया है , मामला उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में 2013 में हुए दंगों से संबंधित मामले वापस लेने से जुड़ा है।  मुज़फ्फरनगर दंगो में यूपी सरकार के दो मंत्रियों सुरेश राणा और कपिल देव अग्रवाल समेत विधायक संगीत सोम और पूर्व सांसद भारतेन्दु सिंह के मुकदमे वापसी ले लिए जाने पर  सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जाहिर की थी और रिपोर्ट तलब की थी,  सुप्रीम कोर्ट में कल रिपोर्ट दाखिल करा दी गयी थी ,सुप्रीम कोर्ट को मंगलवार को सूचित किया गया था कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के संबंध में सीआरपीसी की धारा 321 के तहत 77 मामले बिना कोई कारण बताए वापस ले लिए हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया को  2016 में अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर इस याचिका में न्यायमित्र (एमिकस क्यूरी) नियुक्त किया गया था , जिसमें मौजूदा और पूर्व सांसदों/ विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे में तेजी लाने के निर्देश की मांग की गई थी।
आज इस मामले की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा है कि नेताओं के खिलाफ दायर किया गया मुकदमा राज्य सरकार वापस ले सकती है, अगर दुर्भावना से नेताओं के खिलाफ फर्जी मुकदमा दर्ज हुआ है तो मुकदमा वापस हो सकता है, लेकिन जरूरी है कि हाईकोर्ट इस बात की समीक्षा करे कि मुकदमा वापस लेना सही है या नहीं और हाई कोर्ट की मंजूरी के बाद ही मुकदमा वापस हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को केंद्रीय एजेंसियों, सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा पूर्व सांसदों/विधायकों के खिलाफ जांच पूरी करने में देरी पर भी चिंता प्रकट की। मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को सीबीआई और ईडी के निदेशकों के साथ चर्चा करने के लिए कहा, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या उन्हें समयबद्ध तरीके से जांच पूरी करने के लिए अतिरिक्त जनशक्ति की जरूरत है। प्रधान न्यायाधीश ने न्यायमित्र (एमिकस क्यूरी) द्वारा दायर रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा, "हमें यह कहते हुए खेद है कि सीबीआई और ईडी द्वारा सांसदों/विधायकों के खिलाफ लंबित मामलों की स्थिति रिपोर्ट अनिर्णायक है ..10-15 साल तक चार्जशीट दाखिल नहीं करने और कुछ भी दाखिल नहीं करने का कोई कारण नहीं है।"

जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और सूर्यकांत की इस पीठ ने बताया कि ईडी के मामलों में करोड़ों की संपत्ति कुर्क की जाती है, लेकिन कोई चार्जशीट दाखिल नहीं होती है। केवल संपत्ति को कुर्क करने से उद्देश्य पूरा नहीं होता। मामले में न्यायमित्र, वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया ने एनडीपीएस अधिनियम के तहत दर्ज 2013 के एक मामले का हवाला भी दिया, जिसमें 2017 में आरोप तय किए गए थे और यह विशेष न्यायाधीश, एनडीपीएस एफटीसी, मणिपुर के समक्ष लंबित है। न्यायमित्र ने कहा, "परीक्षण के पूरा होने का संभावित समय 2030 बताया गया है।" पीठ ने ट्रायल पूरा होने के अनुमान पर हैरानी जताई।

सीजेआई ने मेहता से कहा, "कुछ करो, किसी के सिर पर तलवार मत लटकाओ।" सुनवाई पूरी होनी चाहिए, और अगर कोई दोषी है, तो उसे दंडित किया जाना चाहिए। हंसारिया ने अदालत के समक्ष कहा कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों का डेटा चौंकाने वाला और परेशान करने वाला है। उन्होंने मुकदमे की कार्यवाही में तेजी लाने पर जोर दिया।

सीजेआई रमना ने न्यायपालिका और सीबीआई या ईडी जैसी जांच एजेंसियों के सामने आने वाली समस्याओं के बीच एक समानांतर रेखा खींची। उन्होंने कहा, "हमारी तरह जांच एजेंसियां जनशक्ति, बुनियादी ढांचे की कमी से पीड़ित हैं और हर कोई चाहता है कि सीबीआई उनके मामले की जांच करे। "हम इन एजेंसियों के बारे में कुछ नहीं कहना चाहते, क्योंकि हम उनका मनोबल नहीं गिराना चाहते, न्यायाधीशों की तरह उन पर भी बहुत अधिक बोझ है।"

न्यायमित्र की रिपोर्ट के अनुसार, 51 सांसद और 71 विधायक/एमएलसी धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 के तहत अपराधों से उत्पन्न मामलों में आरोपी हैं, जबकि सांसदों/विधायकों के खिलाफ सीबीआई के कुल 121 मामले अदालत में लंबित हैं। सीजेआई ने रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा, "मामले 8 से 10 साल तक के हैं .. उनमें से 58 मौत या आजीवन कारावास से दंडनीय हैं। सबसे पुराना मामला 2000 का है। सीबीआई के 37 मामलों की अभी भी जांच चल रही है।"
मेहता ने कहा कि ईडी के कई मामलों में अक्सर विदेशों से प्रतिक्रिया की जरूरत होती है। उन्होंने कहा कि सूचना मांगने के लिए विभिन्न देशों को अनुरोधपत्र भेजे जाते हैं। उन्होंने जांच में देरी का कारण बताते हुए कहा, "कुछ जल्दी प्रतिक्रिया भेजते हैं, कुछ देर से।" उन्होंने सुझाव दिया कि अदालत सुनवाई खत्म करने के लिए एक बाहरी सीमा निर्धारित कर सकती है। इस पर प्रधान न्यायाधीश ने जवाब दिया, "हमारे लिए यह कहना आसान है कि सुनवाई तेज करो और सब कुछ.. लेकिन न्यायाधीश हैं कहां?"

अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा 2016 में दायर एक याचिका में एमिकस क्यूरी नियुक्त हंसारिया ने शीर्ष अदालत में एक रिपोर्ट दायर की है, जिसमें मौजूदा और पूर्व सांसदों/ विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे में तेजी लाने का निर्देश देने की मांग की गई है। इस मामले में अधिवक्ता स्नेहा कलिता ने उनकी मदद की है।

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