3 बच्चों की पॉलिसी ला रहा है चीन ,एक बच्चा पॉलिसी से किस तरह बिगड़े चीन के हालात ,भारत को लेना चाहिए सबक

 एक तरफ़ भारत और दुनिया के कई देश जनसंख्या नियंत्रण के लिए नई नीतियां ला रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ दशकों पहले ऐसा कर चुका चीन अब इस कारण पैदा हुई समस्या से जूझ रहा है.

चीन दुनिया के उन चंद देशों में से एक है जहां जन्म दर सबसे कम है.

मौजूदा दौर में चीन के सामने सबसे बड़ी चुनौती काम करने वालों की लगातार कम होती आबादी है. इस कारण वहां के युवाओं पर काफ़ी दवाब है. उन पर अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने दादा-दादी और नाना-नानी का भी बोझ है. एक आकलन के अनुसार अगले पांच साल में चीन की एक चौथाई आबादी की उम्र 65 साल से अधिक होगी, मतलब काम करने वालों की कमी और ग़रीबी की समस्या.

इस मुश्किल से निपटने के लिए चीन ने 1980 में लागू की गई वन चाइल्ड पॉलिसी यानी 'एक परिवार एक बच्चा' की नीति को ख़त्म कर टू चाइल्ड पॉलिसी लागू की, लेकिन जन्म दर का गिरना जारी रहा. इसके पांच साल बाद अब चीन ने थ्री चाइल्ड पॉलिसी लागू की है. लेकिन लोगों की चिंता है कि महंगाई के दौर में वो बड़ा परिवार कैसे चलाएंगे.जन्म दर कम करने की कोशिश में लगे मुल्कों को चीन के अनुभवों से कई सबक मिल सकते हैं.इस बार दुनिया जहान में पड़ताल इसी बात की कि जन्म दर कम करना कैसे किसी राष्ट्र के लिए मुसीबत बन सकता है. हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि क्या चीन अपनी आबादी बढ़ा सकता है.

वन चाइल्ड पॉलिसी की ज़रूरत क्यों पड़ी?

1950 के दौर में चीन समेत कई मुल्कों में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हो रही थीं और आबादी अचानक बढ़ने लगी थी. नतीजा ये हुआ कि 1970 तक चीन की आबादी एक अरब पहुंच गई.

मेई फ़ॉन्ग एक पत्रकार हैं और किताब 'वन चाइल्ड: लाइफ़, लव एंड पेरेन्टहुड इन मॉडर्न चाइना' की लेखिका हैं.

वो बताती हैं कि उस दौर में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के नेता देंग ज़ियाओ पिंग ने परिवार नियोजन से जुड़े कड़े फ़ैसले लिए और वन चाइल्ड पॉलिसी लागू की.

वो कहती हैं, "उस वक्त चीन में ग़रीबी थी और आबादी अधिक थी. चीन के अलावा दुनिया के कई और देशों के लिए बढ़ती जनसंख्या परेशानी का सबब बन गई थी. उनकी चिंता था कि आबादी के अनुपात से भविष्य में उनके पास संसाधनों की कमी हो जाएगी."

लेकिन दूसरों के मुक़ाबले चीन के सामने चुनौती अधिक गंभीर थी. दो दशक पहले ही चीन में ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड शुरू किया गया था. इन आर्थिक सुधारों के चलते हुई भुखमरी से यहां लाखों लोगों की जान गई. इतिहास में इसे सबसे भयंकर मानवकृत तबाही कहा जाता है.

चीन के लिए अपनी बड़ी आबादी की सेहत का ध्यान रखना और भोजन की व्यवस्था करना अहम था. ऐसे में जनसंख्या पर लगाम लगाना उस वक्त सही फ़ैसला लगा. आबादी नियंत्रित करने के लिए देंग ज़ियाओ पिंग ने कई क़दम उठाए

वन चाइल्ड पॉलिसी के नुक़सान

मेई फ़ॉन्ग कहती हैं, "एक से अधिक बच्चे होने पर जुर्माना लगाया जाता था और जुर्माना न देने पर संपत्ति नष्ट कर दी जाती थी. लोगों की नौकरी और अन्य सुविधाएं छीन ली जाती थीं और सामाजिक बहिष्कार भी होता था. इतना ही नहीं इसकी सज़ा बच्चों को भी मिलती थी. उन्हें स्कूलों में जगह नहीं मिलती थी, कभी-कभी तो उनका पंजीकरण ही नहीं होता था."

वन चाइल्ड पॉलिसी के लागू होने के बाद नसबंदी के बड़े-बड़े अभियान आयोजित किए गए और बड़ी संख्या में महिलाओं का जबरन गर्भपात किया गया. इस कारण लोगों में डर फैला, जो इस पॉलिसी की विरासत थी.

लेकिन इसके कारण लिंग अनुपात भी गड़बड़ाने लगा क्योंकि माता-पिता की चाहत थी कि अगर एक ही बच्चा होना है तो वो लड़का हो.

मेई फ़ॉन्ग कहती हैं, "गर्भपात कराना आसान हो गया था और लोगों को बच्चा चुनने का मौक़ा दिया गया. ऐसे में यहां के पितृसत्तात्मक समाज में लोगों ने लड़के को जन्म देना चुना और लड़कियों की संख्या कम होती गई. धीरे-धीरे चीन में ऐसे अविवाहित लड़कों की संख्या बढ़ती गई जिन्हें पता था कि शायद उनकी शादी कभी नहीं हो सकेगी."कम जन्म दर ने युवा आबादी के लिए बड़ी मानसिक समस्या को भी जन्म दिया. वन चाइल्ड पॉलिसी लागू होने के शुरूआती दिनों में बच्चे को परिवार में सभी का स्नेह मिलता था, वो सबकी आंखों का तारा होता था, लेकिन इस पॉलिसी के आने के बीस साल बाद स्थिति बदलने लगी.

वो कहती हैं, "अब वो अकेला बच्चा एक ऐसे मज़दूर की तरह था जिसे भविष्य में अपने माता-पिता के साथ-साथ दादा-दादी और नाना-नानी की भी ज़िम्मेदारी लेनी थी, लेकिन इसके लिए सामाजिक व्यवस्था उस तरह नहीं बन पाई थी."

निस्संदेह चीन के लिए वन चाइल्ड पॉलिसी के असर से जूझना बड़ी चुनौती रही, लेकिन उसके लिए इसके असर को पलटना भी आसान नहीं रहा है.

2016 में चीन ने चालीस साल पुरानी इस पॉलिसी को ख़त्म कर टू चाइल्ड पॉलिसी लागू की, लेकिन अब तक स्थिति बदल चुकी थी और लोगों को दो बच्चे नहीं चाहिए थे.

जनसंख्या नीति ने बिगाड़े आंकड़े

टू चाइल्ड पॉलिसी लागू करने के शुरूआती सालों में जन्म दर थोड़ी बढ़ी, लेकिन पांच साल बाद यानी 2020 तक इसमें गिरावट दिखने लगी और औसत जन्म दर प्रति परिवार 1.3 तक पहुंच गई. अधिकतर महिलाओं के लिए दो बच्चे पालना न तो आर्थिक तौर पर आसान था और न ही मानसिक तौर पर.

डॉक्टर जेयू लिउ लंदन में मौजूद सोआस चाइना इंस्टीट्यूट की डिप्टी डायरेक्टर हैं. वो बताती हैं कि वन चाइल्ड पॉलिसी का व्यापक असर शहरों में रहने वालों पर पड़ा.

वो कहती हैं, "ग्रामीण इलाक़ों में रहने वालों की पहली संतान यदि लड़की है तो उन्हें दूसरा बच्चा करने की इजाज़त थी, लेकिन शहरी आबादी को एक बच्चे वाले परिवार की आदत पड़ चुकी थी."

चीन की जन्म दर

परिवार का ख़र्च

लेकिन टू चाइल्ड पॉलिसी के नाकाम होने की बड़ी वजह ये नहीं थी बल्कि ये थी कि दो बच्चों को पालना महंगा सौदा था.

शहरों में व्यक्ति की औसत आय आठ हज़ार येन प्रतिमाह होती है और एक बच्चे की नर्सरी की फ़ीस क़रीब तीन हज़ार येन है. अगर बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए खेलकूद या पियानो क्लासेस में भर्ती कराया तो उसकी फ़ीस अलग होती है.

घर चलाने के लिए माता-पिता काम करते हैं तो बच्चों की ज़िम्मेदारी बुज़ुर्गों पर होती है.

जेयू लिउ कहती हैं, "बुज़ुर्गों की ये पीढ़ी 1950 और 1960 के दशक में पैदा हुई थी और इन पर अपने नाती-पोते के अलावा अपने ख़ुद के माता-पिता का भी बोझ है. चीन में अच्छे वृद्धाश्रम नहीं हैं. ऐसे में वृद्धों का ध्यान भी परिवार को ही रखना होता है."

इसके अलावा परिवारों को अपने इकलौते बेटे के भविष्य को लेकर भी काफ़ी निवेश करना होता है, ताकि बाद में ये सुनिश्चित किया जा सके कि उसकी शादी हो जाए. चीन में वन चाइल्ड पॉलिसी के कारण लड़कियों की संख्या काफ़ी कम हुई है.

वो कहती हैं, "ये उम्मीद होती है कि शादी के बाद नवदंपती के लिए घर की व्यवस्था बेटे का परिवार ही करेगा. मतलब ये कि लड़के के पास घर न हो तो दुल्हन मिलने की संभावना कम है. घरों की क़ीमतें अब आसमान छू रही हैं, ऐसे में परिवार दो बेटे पालने की हिम्मत कर ही नहीं सकता."इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यहां परिवार चलाने में पत्नी की भूमिका बेहद अहम है, लेकिन यहां के लेबर मार्केट में महिलाओं के साथ भेदभाव आम है, ख़ासकर इसलिए कि अगर महिला के दो बच्चे हुए तो मैटर्निटी लीव और कई ख़र्चे कंपनी को देने पड़ सकते हैं.

ऐसे में महिला के लिए परिवार की बजाय अपने करियर पर ध्यान देना ज़रूरी हो जाता है.

जेयू लिउ कहती हैं, "एक तो लड़कियां अपने परिवारों की इकलौती औलाद होती हैं, दूसरे वो अपनी पढ़ाई और करियर पर अधिक ध्यान देती हैं. वो न तो तीस साल की उम्र से पहले शादी करना चाहती हैं और न ही जल्दी बच्चे पैदा करना चाहती हैं. उनके माता-पिता की पीढ़ी में लोग 24 साल की उम्र तक शादी कर लेते थे."

वो कहती हैं कि चीनी दंपतियों को एक से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए कैसे प्रोत्साहित किया जाए, इस विषय पर एक चर्चा में घरों की क़ीमतों का ज़िक्र हुआ था. लोगों का कहना है कि सरकार आर्थिक सहयोग दे, लेकिन सरकार ऐसा करेगी या नहीं, ये कहा नहीं जा सकता.

क्या आर्थिक मदद से निकलेगा रास्ता

2004 में हंगरी के यूरोपीय संघ में शामिल होने के बाद वहां हर 10 में से एक ने नौकरी के लिए दूसरे देश का रुख़ किया. नतीजा ये हुआ कि वहां की आबादी घट गई. आबादी बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री विक्टर ऑर्बन ने देश की महिलाओं से अधिक बच्चे पैदा करने की गुज़ारिश की.

विएना के सेंट्रल यूरोपीयन यूनिवर्सिटी में जेंडर स्टडीज़ विभाग में प्रोफ़ेसर एंड्रिया पेटो कहती हैं कि ऑर्बन सरकार ने परिवार को विकास के केंद्र में रखा, लेकिन साथ ही अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए कदम उठाए.

वो कहती हैं, "ऑर्बन सरकार की नीति महिलाओं को सीधे तौर पर आर्थिक मदद देने की थी, जैसे टैक्स में राहत, घर और बड़ी गाड़ी खरीदने के लिए लोन में मदद. इस नीति से अर्थव्यवस्था को भी काफ़ी मदद मिली."

वीडियो कैप्शन,

मीडिया कवरेज को लेकर चीन और पश्चिमी देशों के बढ़ा तनाव. विदेशी पत्रकारों की बढ़ी मुश्किलें

जनसंख्या नियंत्रण की ऑर्बन सरकार की नीति न केवल यूरोप के दूसरे देशों के द्वारा अपनाई गई नीति से अलग थी बल्कि चीन की नीति से भी अलग थी.

लेकिन हंगरी सरकार का उद्देश्य भी दूसरे मुल्कों से अलग था. सरकार के लिए ये जन्म दर बढ़ाने के साथ-साथ शासन का तरीका और आर्थिक नीति भी था. एंड्रिया कहती हैं ये कुछ हद तक महिलाओं की भूमिका के पुनर्निधारण जैसा था.

एंड्रिया पेटो कहती हैं, "सरकार ने ऐसा दिखाया जैसे जनसंख्या की नीति में महिला सबसे अहम है और अधिक से अधिक बच्चे पैदा करना उनकी ज़िम्मेदारी है. ये उन्हें भावनात्मक तौर पर ब्लैकमेल करने जैसा था."

नतीजा ये हुआ कि मां बनना धीरे-धीरे करियर बनने लगा. लड़कियों के लिए दिन में दस घंटे काम करने की बजाय मां बनना बेहतर विकल्प था, ख़ासकर ग़रीबों के लिए और ऐसे लोगों के लिए जो काम नहीं करना चाहते थे.

लेकिन इस नीति से मध्यवर्ग को कोई विशेष राहत नहीं मिली.

वो बताती हैं, "लंबे वक्त में इसका नुक़सान भी था. जिन पति-पत्नी ने लोन लिया है उनके लिए तलाक़ लेना मुश्किल हो जाता था और मजबूरन उन्हें साथ रहना पड़ता था. साथ ही अगर वादे के अनुसार अधिक बच्चे न पैदा किए तो बाज़ार की दर से लोन चुकाना पड़ता था."

दूसरी तरफ़ बच्चे के पैदा होने पर आर्थिक मदद देने के लिए सरकार लोगों पर अधिक टैक्स लगाने लगी जिसका असर मध्यवर्ग पर पड़ा, लेकिन उन्हें सरकारी आर्थिक मदद नहीं मिल रही थी और उनकी नाराज़गी बढ़ने लगीसरकार की नीति के चलते बीते सालों में यहां जन्म दर बढ़ कर 1.5 हुई है, लेकिन आबादी बढ़ने के लिहाज़ से ये अभी कम है.

एंड्रिया पेटो कहती हैं, "सतही तौर पर ये कामयाबी की मिसाल दिखती है, लेकिन असल में ये दुनिया की सबसे महंगी कल्याणकारी योजना है."

जनसंख्या बढ़ाने के लिए चीन ने अब तक लोगों को आर्थिक मदद की पेशकश नहीं की है. क्या होगा अगर सरकार लोगों को नहीं मना पाई.

अब, आगे क्या

ये स्पष्ट है कि जन्म दर बढ़ाने के लिए थ्री चाइल्ड पॉलिसी लागू करने की चीन की कोशिशों का अब तक कोई ठोस परिणाम देखने को नहीं मिला है.

ज्यू वांग नीदरलैंड्स के लाइडन यूनिवर्सिटी में असिस्टेन्ट प्रोफ़ेसर हैं. वो कहती हैं कि जन्म दर बढ़ाने की कोशिशों में नाकामी का मतलब है आने वाले वक्त में काम करने की उम्र के लोगों की कमी. चीनी सरकार के ख़ुद के आंकड़े बताते हैं कि पांच सालों में देश की एक चौथाई आबादी रिटायमेन्ट की उम्र तक पहुंच जाएगी.

वो कहती हैं, "इसका असर पेंशन, स्वास्थ्य व्यवस्था और सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर पड़ेगा. कामगारों की कमी होगी तो असर आर्थिक विकास पर भी पड़ेगा, ख़ासकर तब जब बीते चार दशकों में चीन की रिकॉर्ड तरक्क़ी में श्रम आधारित उत्पादन की बड़ी भूमिका रही है. लेकिन अकेला चीन ही नहीं, कई दूसरे पूर्व एशियाई देशों के लिए भी बूढ़ी होती आबादी परेशानी का कारण बनी हुई है."

कामगारों की संख्या कम होने का मतलब ये भी है कि टैक्स देने वालों की संख्या भी कम हो जाएगी. स्पष्ट है कि अगर करदाताओं की संख्या घटती गई तो देश ग़रीबी की तरफ़ बढ़ जाएगा.

ज्यू वांग कहती हैं, "बूढ़ी होती आबादी के कारण भविष्य में लेबर की कमी होगी और सरकार को कल्याणकारी योजनाओं और स्वास्थ्य सेवा में अधिक निवेश करना होगा. इन सबका सीधा असर विकास की गति पर पड़ेगा. और तो और वृद्ध आबादी पर युवाओं को भी अधिक ख़र्च करना होगा."लेकिन क्या इस समस्या से जूझने के लिए चीन तकनीक का सहारा नहीं ले सकता?

वो कहती हैं, "सरकार तकनीक के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करती है, लेकिन ये काफ़ी नहीं है. यहां की अर्थव्यवस्था अभी भी लेबर इंटेन्सिव है. इस सेक्टर को आप रातोंरात आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस और रोबोट जैसे हाईटेक तरीकों से नहीं बदल सकते."

ज्यू वांग कहती हैं कि आबादी बढ़ाना समस्या का हल हो सकता है, लेकिन चीन इसके लिए बेहद संकीर्ण रास्ता अपना रहा है. उसे पहले इससे जुड़ी दूसरी मुश्किलों का हल तलाशना पड़ेगा.

वो कहती हैं, "बच्चे पैदा करने से जुड़े अहम मुद्दे हैं, नौकरी में महिलाओं की सुरक्षा, महंगे घर और महंगी शिक्षा. इनका हल बिना तलाशे लोगों को दूसरे या तीसरे बच्चे के लिए प्रोत्साहित करना आसान नहीं होगा. लोग केवल इसलिए बच्चा पैदा नहीं करेंगे कि सरकार ने इसकी अनुमति दे दी है, ये पूरी तरह से परिवार का फ़ैसला होता है."

लेकिन क्या थ्री चाइल्ड पॉलिसी लागू कर चीन वाकई अपनी आबादी बढ़ा सकेगा. कुछ साल पहले चीन ने टू चाइल्ड पॉलिसी लागू तो की, लेकिन जन्म दर पर इसका कोई बड़ा असर देखने को नहीं मिला.

बच्चा पैदा करने की इजाज़त भर दे देने से आबादी बढ़ेगी, ऐसा नहीं है. समस्या का निदान खोजने के लिए सरकार को इससे कहीं अधिक करना होगा, यानी सस्ती शिक्षा, सस्ते घर और सस्ती और बेहतर स्वास्थ्य सेवा- मतलब ये कि सरकार को समाज के काम करने के तौर तरीकों में बड़ा बदलाव लाना होगा. साभार बीबीसी हिंदी

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