कैसे पत्थर लोग हैं आजकल सरकारों में

 कैसे पत्थर लोग हैं आजकल सरकारों में

 लेखक : ज़फरुद्दीन "ज़फर"

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कैसी सच्ची ख़बर है मुल्क के अख़बारों में,
दवाईयां ढूंढती हैं मज़हब आज बीमारों में।


वो अकबर नहीं फिर भी जलाल आ गया,
प्रेम उसने चुन दिया नफ़रत की दीवारों में।


कुछ लोग चले गए, कुछ लोग चले जाएंगे,
ग़ुरूर किस बात का है शहर के दरबारों में।


पुर्जा पुर्जा बिक रहा है देश की मशीन का,
चेहरा बदल कर बैठे हैं वो भी खरीदारों में।


मज़हब ज़ात में उलझाकर चल रहे हैं बस,
दम नहीं रह गया है आजकल किरदारों में।


मन की कह कर कभी मन की सुनते नहीं,
कैसे पत्थर लोग हैं आज कल सरकारों में।


कल बेची थी चाय उसने रेलवे स्टेशन पर,
आज मुल्क बेच दिया शहर के दमदारों में।


जीत ली है जंग उसने झूठ की तलवार से,
सच की क़ीमत नहीं सत्ता के गलियारों में।


हो रही हैं आजकल तैयारियां इस बात की,
क्या खाना है पकाना है अपने घर-बारों में।


वक़्त फिर आ गया लोकतंत्र की शक्ति का,
धार तेज़ करके रखिए वोट की तलवारों में।


यूं ख़ून खौलता है मेरा देख कर दीवार को,
'ज़फ़र' इंसाफ़ नहीं हुआ घर के बंटवारों में।


-ज़फ़रुद्दीन"ज़फ़र"
एफ़-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
zzafar08@gmail.com

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