अल्लाह ने हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम के त्याग, आज्ञा पालन और समर्पण का इम्तिहान लेने के लिए उन्हें अपनी रहा(अल्लाह की राह में) सबसे अजीज़ चीज़ की कुर्बानी (त्याग) करने का हुक्म दिया|

जब अल्लाह ने हजरत इब्राहिम अ. के त्याग, आज्ञापालन और समर्पण का इंतिहान लेने के लिए उन्हें अपनी राह (अल्लाह की राह में) सबसे अजीब चीज की कुर्बानी (त्याग) करने का हुक्म दिया तो उन्होंने पहले अपने माल को चुना और ऊंट कुर्बान किए.. क्योंकि जानवर धन ही होता है आज भी भैंस, बकरी, गाय, भेड़ आदि  धन ही है जिस प्रकार नगद पैसा, जमीन, बाग, घर, संसाधन हमारा धन है उसी तरह और धन आदमी को अजीज होता है.. अल्लाह उनकी कुर्बानी से खुश हुआ होगा लेकिन वह  और ज्यादा चाहता था.. तब उन्होंने अपने बेटे स्वभाविक है माल (धन-संपत्ति) से भी ज्यादा प्रिय औलाद होती है! वैसे तो मां-बाप, भाई-बहन, दोस्त या जिससे मोहब्बत हो वह दुनिया में सबसे प्रिय होता है लेकिन जरूरी नहीं वह हमारी मिल्कियत में हो... औलाद और अगर वह नाबालिग है तब तो पूरी तरह बाप की मिल्कियत ही है यानी उस पर पूरा अधिकार होता है इसलिए हजरत इब्राहिम अ. ने भी अपनी औलाद को अल्लाह की राह में कुर्बान करने (न्योछावर, त्याग, बलिदान)का फैसला किया।

अरशद अली अलीगढ़ ब्यूरो चीफ बेताब समाचार एक्सप्रेस

अल्लाह तो तत्वदर्शी, सर्वज्ञाता है वह उनकी निष्ठा को समझ रहा था! जब उन्होंने बेटे को अपनी आंख पर पट्टी (पट्टी इसलिए कहीं बेटे की ममता, मोहब्बत अल्लाह की मोहब्बत और आज्ञापालन से ऊपर न हो जाए और मेरे हाथ रुक जाएं) बांधकर उसे (हजरत इस्माइल अ. )को कुर्बान कर दिया..अल्लाह ने कुर्बानी कुबूल की और फौरन फरिश्ते को भेजकर बेटे को हटा दिया और वहां पर दुंबा (जानवर) कुर्बान कर दिया!

अब अल्लाह ने जिस जानवर को कुर्बान करवाया वह भी धन ही था इससे यह हुआ अल्लाह औलाद को कुर्बान नहीं करवाना चाहता था वह तो परीक्षा ले रहा था कि राह ए हक पर चलने के लिए कहीं तुम अपनी औलाद को कुर्बान (त्याग) करने से रुक तो नहीं जाओगे... और जब वह  परीक्षा में पास हो गए तो वहां जानवर को कुर्बान पाया यानी धन की कुर्बानी हुई!

अल्लाह के प्रति हमारा ईमान (आस्था, विश्वास) त्याग, आज्ञापालन और समर्पण इतना ज्यादा होना चाहिए कि हम कुछ भी त्याग सकते हों.. हम अपना सब कुछ उसकी राह में खर्च कर सकते हों... !

ईद उल अजहा का मतलब है कुर्बानी का दिन यानी अल्लाह ने इन विशेष दिनों में अपनी राह में कुर्बानी(त्याग ) का हुक्म दिया है... क्योंकि इब्राहिम अ. के समय जानवर (धन )की कुर्बानी हुई थी जैसा बताया जाता है हजरत मुहम्मद स. ने भी जानवर (धन) की कुर्बानी इन विशेष दिनों में दी!.. तो हमें भी अल्लाह की राह में कुर्बानी करना चाहिए!

अल्लाह की राह वही है जिसे अल्लाह ने कुरान में बताया है और जिसपे हजरत मुहम्मद स. ने व्यवहारिक रूप से चल कर दिखाया है.. अल्लाह ने इंसानों को जितने काम करने का हुक्म दिया है उन्हें करने के लिए अपना धन खर्च करना ही सही मायने में कुर्बानी है!... और अल्लाह ने जिन कामों से रोका है वो हराम हैं( चोरी, सरकारी चोरी, ठगी, बेईमानी, हकमारी, मिलावटखोरी, मुनाफाखोरी, घटतौली,  रिश्वत, भ्रष्टाचार, कर्तव्यहीनता से अर्जित धन, बिना मेहनत का धन, कमीशन, ब्याज, झूठ बोलकर कमाया गया धन, अवैध कब्जेदारी से अर्जित धन आदि) यानी उन कामों से जो धन अर्जित किया जाएगा वो भी हराम है!अब उस हराम धन को अल्लाह की राह में चाहे संपूर्ण खर्च कर दिया जाए फिर भी कोई फल नहीं मिलेगा बल्कि उसे अर्जित करने का दंड भोगना पड़ेगा!..यानी अल्लाह ने जिन्हें हराम कहा है उनसे बचना भी एक हिसाब से कुर्बानी है!

अल्लाह ने कहा है गरीबों, राहगीरों, जरूरतमंदों, रिश्तेदारों, दोस्तों, मेहमानों, मदद मांगने वालों आदि पर खर्च करो... यानी इनके लिए अपने धन या जो चीज तुम्हें प्रिय है (वक्त, साथ, ज्ञान, प्रेम आदि भी) वह कुर्बान (त्याग, न्योछावर, सदका) करो!.. अब इन विशेष दिनों में जो सक्षम है वह तो अवश्य कुर्बानी करें!... और जो धन से सक्षम नहीं हैं वो  किसी के साथ (अपने व्यवहार और प्रेम से) मानसिक, भावनात्मक, हार्दिक रूप से कुछ कुर्बान करें... यानी कम से कम इंसानों से खुलूश ओ मोहब्बत से पेश आएं.. एक दूसरे को माफ कर दें, हसद बुग्ज़ मनमुटाव का त्याग कर दें और एकता कायम करने की कोशिश करें यह भी एक कुर्बानी ही है क्योंकि जब हम किसी को माफ करते हैं या माफी मांगते हैं तो घमंड खत्म होता है विनम्रता बढ़ती है और प्रेम का संचार होता है.. हमें थोड़ा झुकना पड़ता है समझौता करना पड़ता है, जरा विचार करो यह कितनी बड़ी कुर्बानी है.. जिसका परिणाम सुखद होता है!


अब धन के रूप में जिनके पास जानवर है वह जानवर कुर्बान करते हैं.. जानवर से दो प्रकार की मोहब्बत होती है एक तो वह धन है इस रूप में दूसरे एक प्राणी के रूप में तो यहां दोहरा त्याग होता है!... लेकिन उसे कुर्बान करके यदि स्वयं या परिवार के लोगों द्वारा ही अपने ऊपर खर्च कर लिया जाए जैसा आजकल अधिकतर लोग करते हैं दो दिन पहले जानवर ले आए कुर्बान कर के जितना खा सकते थे उसी दिन खा गए जो बचा उसे फ्रिज में रखकर कई दिन खाते हैं.. दावत भी देंगे तो उन्हीं खाए पिए और सक्षम लोगों को और आपस में आगे पीछे सिर्फ इसलिए कुर्बानी करते हैं कि बारी-बारी से खूब खाने को मिले!.. कुर्बानी (त्याग) के दिनों को खाने-पीने और लालच के दिन बना देते हैं!... गरीब, जरूरतमंद, दोस्तों रिश्तेदारों, मुसाफिरों आदि पर वह धन खर्च ही नहीं हो पाता वह तो अपने ऊपर या अपने करीबी जिन्हें जरूरत नहीं थी उन पर ही खर्च होता है तो यह कुर्बानी (त्याग) कैसी है!

कायदे से उसके तीन हिस्से किए जाएं एक जरूरतमंदों, गरीबों, मुस्कीनो, फकीरों आदि का , एक दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों आदि का और एक अपना... और इसमें खाने-पीने का लालच न हो सिर्फ और सिर्फ अल्लाह की राह में कुर्बानी की भावना हो!.. ये तीन दिन त्याग की विशेष ट्रेनिंग होती है यानी हम अल्लाह की राह में त्याग की भावना में इतने पक्के हो जाएं कि पूरे साल हमें कुर्बानी (त्याग, सदका )करने के लिए सोचना न पड़े, हमारा हाथ कोई रोक न पाए!.. यानी हम धन की कुर्बानी (मेहनत की कमाई का धन) के साथ माफी मांगने, माफ करने, विनम्र रहने, एकता कायम करने, सच बोलने, मोहब्बत करने, मदद करने,बुग्ज  हसद  मनमुटाव झगड़ा लड़ाई से बचने, लालच और घमंड से बचने, इल्म हासिल करने, किसी दोस्त भाई रिश्तेदार का साथ देने, भलाई का हुक्म देने, उपदेश देने, सेवा करने, सामाजिक काम करने... के लिए कुर्बानी (त्याग) करने में पीछे न हटें!

अगर हमारे अंदर से झूठ, घमंड और लालच न निकला और त्याग की भावना न विकसित हुई तो हम ट्रेनिंग में फेल हो जाएंगे और हमारा कुछ भी अल्लाह को कबूल नहीं होगा!

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