“कैमरे की नजर में नागरिक नहीं, संदिग्ध”: पुलिसिया मनमानी या लोकतंत्र की हत्या?

रिपोर्ट- मुस्तकीम मंसूरी 

 मुरादाबाद, शाज़िया परवीन (स्वतंत्र पत्रकार) की कलम से निकले क्रांतिकारी शब्द, रात के गहन अंधकार में जब सड़कों पर सन्नाटा पसरा होता है, उस समय नागरिकों की सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस यदि भय और अपमान की पर्याय बन जाए, तो समझिए — लोकतंत्र की आत्मा पर चोट हो चुकी है।


हाल की एक घटना, जिसमें रात्रि को एक महिला अपने परिजनों के साथ दुकान बंद कर अपने ही प्लॉट की ओर लौट रही थी और पुलिस ने बिना किसी अपराध या संदेह के उनके फोटो खींचकर विभागीय ग्रुप में भेज दिए, लोकतांत्रिक मूल्यों की खुली अवहेलना है। यह केवल निजता (Privacy) का हनन नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 — “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” — का स्पष्ट उल्लंघन है।

 यह कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक खतरनाक प्रवृत्ति है।

जिस समाज में पुलिस नागरिकों को पहले से ही दोषी मानकर व्यवहार करने लगे, वहां कानून संरक्षक नहीं, शोषक बन जाता है। यह घटनाक्रम कई सवाल उठाता है:

* क्या नागरिक की सार्वजनिक सड़क पर उपस्थिति ही अपराध है?

* क्या पुलिस के पास यह संवैधानिक अधिकार है कि वह किसी नागरिक का चेहरा बिना अनुमति कैमरे में कैद करे और उसे किसी आन्तरिक मंच पर प्रसारित करे?

* क्या यह भय और दमन का नया मॉडल है — "हमें सब दिख रहा है, हम कुछ भी कर सकते हैं"?

 पुलिस की यह प्रवृत्ति केवल गैरकानूनी ही नहीं, अमानवीय भी है।


ऐसे में सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि यह पुलिस विभाग के भीतर ही सामाजिक पूर्वग्रह और वर्गभेद को दर्शाता है।

क्यों सिर्फ गरीब, छोटे दुकानदार, रिक्शा-चालक, मजदूर और निम्नवर्गीय नागरिक ही चेकिंग और अपमान के लक्ष्य होते हैं?

क्या कभी किसी मॉल से निकलती लग्ज़री गाड़ी की रात में इसी तरह तस्वीरें खींची जाती हैं?


 "पब्लिक सर्वेंट" या "सर्विलांस सिपाही"?


आज पुलिस "जनसेवक" नहीं, "सर्विलांस सिस्टम का हिस्सा" बनती जा रही है। कैमरा और यूनिफॉर्म के नाम पर उन्हें असंवेदनशीलता की छूट मिलती जा रही है। RTI और मानवाधिकार आयोगों की चेतावनियों के बावजूद, "बिना कारण फोटो खींचना", "झूठे बहाने से वाहन रोकना", "रात में खुले होटल से मुफ्त खानपान लेना", और "चाय की दुकानों से पैसा वसूलना" — ये सब अब सामान्य प्रथा बन चुके हैं।


 पत्रकारों की भूमिका अब निर्णायक होगी।


यह युग “सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों” का नहीं, “सत्य के कैमरों और कलम” का होना चाहिए। हर पत्रकार, हर नागरिक-संवाददाता का यह अधिकार है कि वह पुलिसिया अनियमितता, घूस, उत्पीड़न और सर्विलांस संस्कृति के ख़िलाफ़ सच्चाई उजागर करे। कानून की आड़ लेकर किया गया कोई भी अपमानजनक कार्य कानून नहीं बन जाता।


# सवाल ये नहीं कि पुलिस को कितनी छूट चाहिए।


सवाल यह है कि कितनी छूट से नागरिक एक दिन 'अपराधी' मान लिया जाएगा?


भारत का संविधान नागरिकों को अपराधी मानकर नहीं चलता — वह अधिकार देता है, गरिमा देता है।

यदि पुलिस नागरिक को 'पहले संदिग्ध' माने, फिर उसे 'सिद्ध' करने के लिए तर्क जुटाए — तो यह लोकतंत्र नहीं, राज्य की पुलिसी अधिनायकता है।


# हम यह नहीं कहते कि पुलिस की आवश्यकता नहीं है,


"हम केवल यह याद दिला रहे हैं — पुलिस राज्य नहीं, संविधान राज्य है।"

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