द्वितीय विश्व युद्ध की अद्भुत खोज जिसके कारण मोतियाबिंद सर्जरी के दौरान कृत्रिम लेंस प्रत्यारोपण कर पाना संभव हुआ।

 बेताब समाचार एक्सप्रेस के लिए मुस्तकीम मंसूरी की रिपोर्ट,

कोटा, सवि नेत्र चिकित्सालय के नेत्र रोग विशेषज्ञ इंट्राओकुलर लेंस प्रत्यारोपण की 74वीं वर्षगांठ के अवसर पर डॉ सुरेश पांडे, डॉ विदुषी शर्मा कहा कि इंट्राओकुलर लेंस  प्रत्यारोपण द्वितीय विश्व युद्ध की अद्भुत खोज है। जिसके कारण  मोतियाबिंद सर्जरी के दौरान कृत्रिम लेंस प्रत्यारोपण कर पाना संभव हुआ। कृत्रिम लैंस प्रत्यारोपण का इतिहास हमें अनवरत संघर्ष करते हुए सफलता की ओर प्रेरित करता है। मुझे कृत्रिम लैंस के अविष्कारक सर हेरोल्ड रिडले से मिलने का सौभाग्य मिला और कृत्रिम लेंस प्रत्यारोपण की यह कहानी आपके सम्मुख साझा कर रहा हूं। 
इट्राओकुलर लेंस (आई.ओ.एल.) के प्रत्यारोपण के साथ मोतियाबिंद सर्जरी मानव शरीर में सबसे अधिक की जाने वाली सर्जरी में से एक है। दुनिया भर में हर साल 2.5 करोड़ (25 मिलियन) से अधिक रोगियों में मोतियाबिंद सर्जरी और इंट्राओकुलर लेंस प्रत्यारोपण किया जाता है। आज से चौहत्तर साल पहले, 29 नवंबर 1949 को, सर निकोलस हेरोल्ड रिडले ने लंदन ब्रिटेन के सेंट थॉमस अस्पताल में एक 45 वर्षीय महिला पर पहला इंट्राओकुलर लेंस प्रत्यारोपित किया। दो साल पहले, एक मेडिकल छात्र स्टीव पैरी ने मोतियाबिंद सर्जरी को पहली बार देखने के बाद ऑपरेशन करने वाले सर्जन डॉ. रिडले से पूछाः क्या मोतियाबिंद को पारदर्शक कृत्रिम लैंस से नहीं बदला जा सकता है? डॉ. रिडले ने बाद में इसे एक प्रेरक घटना बताया, जिसने उन्हें आंख में इंट्राओकुलर लेंस प्रत्यारोपण के बारे में गंभीरता से सोचने पर मजबूर कर दिया।


वर्ष 1941 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, डॉ. रिडले ने गोर्डन माउस क्लीवर नामक एक घायल फ्लाइट लेफ्टिनेंट का इलाज किया, जिनकी आँख में चोट लग गई थी। ब्रिटेन की रॉयल एयरफोर्स के हॉकर हरीकैन नामक लडाकू विमान में उड़ान के दौरान लेफ्टिनेंट  गोर्डन माउस क्लीवर ने सैफ्टी गॉगल्स नहीं पहना हुआ था। जर्मन सेना द्वारा दागे गए तोप के गोले ने कॉकपिट के ऐक्रेलिक ग्लास (पॉलीमेथाइल मेथैक्रिलेट या पी.एम.एम.ए. से बना) को तोड़ दिया। कॉकपिट के टूटे हुए प्लास्टिक के टुकड़े गोर्डन माउस क्लीवर के चेहरे पर लगे, और कई टुकड़े उनकी आंखों में घुस गए। डॉ. रिडले ने कई बार सर्जरी की लेकिन उनकी आँखों से ऐक्रेलिक ग्लास के सभी टुकड़े नहीं निकाले जा सके। डॉ. रिडले ने कई महिनों तक इस फ्लाइट लेफ्टिनेंट का नेत्र परीक्षण किया और वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि प्लास्टिक के टुकड़े आंख के अंदर इनर्ट (निष्क्रिय) थे और उनके खिलाफ कोई टिश्यू रिएक्शन नहीं हुई। ऑपरेशन थिएटर में मेडिकल स्टूडेन्ट स्टीव पैरी के सवाल ने डॉ. रिडले के दिमाग में ये विचार पैदा कर दिए और उन्होंने रेनर कंपनी के ऑप्टिकल वैज्ञानिक जॉन पाइक से संपर्क किया। जॉन पाइक ने अपने मित्र डॉ. जॉन होल्ट की मदद से रिडले के लिए कृत्रिम लैंस (आई.ओ.एल.) तैयार किया। दिनांक 8 फरवरी 1950 को लंदन के सेंट थॉमस हॉस्पिटल में डॉ. रिडले ने कृत्रिम लैंस को आँख में स्थायी रूप से प्रत्यारोपित किया।


डॉ. हेरोल्ड रिडले द्वारा आँख के अंदर लेंस प्रत्यारोपित करने के उनके विचार को उस समय के विश्व विख्यात नेत्र विशेषज्ञ प्रोफेसर ड्यूक एलडर एवं अन्य वरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञों ने पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया। आई.ओ.एल प्रत्यारोपण के शुरुआती अनेको वर्षो तक डॉ. रिडले को हतोत्साहित करने वाली टिप्पणियाँ मिलती रहीं।  तीस वर्ष  बाद 1981 में अमेरिका के फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) ने कृत्रिम लेंस (IOL) प्रत्यारोपण को मान्यता प्रदान की। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान घायल पायलट का इलाज करते समय उत्पन्न विचार से जन्मा कृत्रिम लैंस प्रत्यारोपण दुनिया का सबसे सफल एवं सर्वाधिक संख्या में किया जाने वाला सफल ऑपरेशन है। कृत्रिम लैंस प्रत्यारोपण का इतिहास हमें अनवरत संघर्ष करते हुए सफलता की ओर प्रेरित करता है।

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