22 मई को यहां के हाशिमपुरा में 42 मुस्लिम युवकों को पीएसी जवानों द्वारा हत्या कर दी गई थी. इसके अगले दिन 23 मई को मलियाना गांव के 72 से अधिक मुसलमानों को इसी तरह मार डाला गया था.

कुरबान अली की रिपोर्ट 

उत्तर प्रदेश में साल 1987 के मेरठ दंगों के दौरान 22 मई को यहां के हाशिमपुरा में 42 मुस्लिम युवकों को पीएसी जवानों द्वारा हत्या कर दी गई थी. इसके अगले दिन 23 मई को मलियाना गांव के 72 से अधिक मुसलमानों को इसी तरह मार डाला गया था. 2018 में हाशिमपुरा मामले में 16 पीएसी जवानों को उम्रक़ैद की सज़ा मिल चुकी है, लेकिन मलियाना के पीड़ितों को घटना के 34 साल बाद भी न्याय का इंतज़ार है.22-23 मई को मेरठ जिले के मलियाना गांव में हुए नरसंहार और मेरठ दंगों के दौरान जेलों में हिरासत में हुईं हत्याओं की 34वीं बरसी है.
उस दिन उत्तर प्रदेश की कुख्यात प्रांतीय सशस्त्र पुलिस बल (पीएसी) द्वारा मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से 42 मुस्लिम युवकों उठाकर हत्या कर दी गई थी, जबकि अगले दिन 23 मई को पास के मलियाना गांव में 72 से अधिक मुसलमानों को मार डाला गया था.इसके अलावा उसी दिन मेरठ तथा फतेहगढ़ की जेलों में भी 12 से अधिक मुसलमानों को कथित तौर पर मार डाला गया था. तीन दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद अभी तक इन हत्याकांडों में से दो की सुनवाई पूरी नहीं हो सकी है और पीड़ित परिवारों को न्याय नहीं मिल सका है, जबकि हाशिमपुरा मामले में ढाई वर्ष पहले दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आ गया है और 16 दोषी पीएसी जवानों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई है.

1987 में मेरठ सांप्रदायिक दंगे की आंच

अप्रैल-मई 1987 में मेरठ में भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए थे. मेरठ में 14 अप्रैल 1987 को शब-ए-बारात के दिन शुरू हुए सांप्रदायिक दंगों में दोनों संप्रदायों के 12 लोग मारे गए थे. इन दंगों के बाद शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया और स्थिति को नियंत्रित कर लिया गया.

हालांकि, तनाव बना रहा और मेरठ में दो-तीन महीनों तक रुक-रुक कर दंगे होते रहे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इन दंगों में 174 लोगों की मौत हुई और 171 लोग घायल हुए.

वास्तव में ये नुकसान कहीं अधिक था. विभिन्न गैर सरकारी रिपोर्टों के अनुसार मेरठ में अप्रैल-मई में हुए इन दंगों के दौरान 350 से अधिक लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो गई.

शुरुआती दौर में दंगे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच का टकराव थे, जिसमें भीड़ ने एक दूसरे को मारा. लेकिन 22 मई के बाद ये दंगे दंगे नहीं रह गए थे और यह मुसलमानों के खिलाफ पुलिस-पीएसी की नियोजित हिंसा थी.

हाशिमपुरा नरसंहार में न्याय

उस दिन (22 मई को) पीएसी ने हाशिमपुरा में स्वतंत्र भारत में हिरासत में हत्याओं की सबसे बड़ी और मानव क्रूरता के सबसे शर्मनाक अध्यायों में से एक को अंजाम दिया.

उस दिन हाशिमपुरा को पुलिस और पीएसी ने सेना की मदद से घेर लिया. घर-घर जाकर तलाशी ली गई. फिर पीएसी ने सभी पुरुषों को घरों से निकालकर बाहर सड़क पर लाइन में खड़ा किया और उनमें से लगभग 50 जवानों को पीएसी के एक ट्रक पर चढ़ने के लिए कहा गया.

324 अन्य लोगों को अन्य पुलिस वाहनों में गिरफ्तार कर ले जाया गया. जिन 50 लोगों को एक साथ गिरफ्तार किया गया था, उन्हें एक ट्रक में भरकर मुरादनगर ले जाया गया और ऊपरी गंग नहर के किनारे पीएसी ने उनमें से करीब 20 लोगों को गोली मार कर नहर में फेंक दिया. वहां 20 से अधिक शव नहर में तैरते मिले.

इस घटना की दूसरी किस्त को करीब एक घंटे बाद दिल्ली-यूपी सीमा पर हिंडन नदी के किनारे अंजाम दिया गया, जहां हाशिमपुरा से गिरफ्तार किए गए बाकी मुस्लिम युवकों को पॉइंट-ब्लैंक रेंज से मारकर उनके शवों को नदी में फेंक दिया गया.

राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने गंग नहर और हिंडन नदी पर हुईं हत्याओं की सीबीआई जांच के आदेश दिए थे. सीबीआई ने 28 जून 1987 को अपनी जांच शुरू की और पूरी जांच के बाद अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी. लेकिन इस रिपोर्ट को कभी भी आधिकारिक तौर पर सार्वजनिक नहीं किया गया.

उत्तर प्रदेश की अपराध शाखा- केंद्रीय जांच विभाग (सीबी-सीआईडी) ने इस मामले की जांच शुरू की. इसकी रिपोर्ट अक्टूबर 1994 में राज्य सरकार को सौंपी गई और इसने 37 पीएसीकर्मियों पर मुकदमा चलाने की सिफारिश की.

अंत में 1996 में गाजियाबाद के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत आरोप पत्र दायर किया गया था. आरोपियों के खिलाफ 23 बार जमानती वारंट और 17 बार गैर-जमानती वारंट जारी किए गए, लेकिन उनमें से कोई भी 2000 तक अदालत के समक्ष पेश नहीं हुआ.

वर्ष 2000 में 16 आरोपी पीएसी जवानों ने गाजियाबाद की अदालत के सामने आत्मसमर्पण किया. उन्हें जमानत मिल गई और वह फिर से अपनी सेवा पर बहाल हो गएगाजियाबाद अदालत की कार्यवाही में अनुचित देरी से निराश पीड़ितों और बचे लोगों के परिजनों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस मामले को दिल्ली स्थानांतरित करने की प्रार्थना की, क्योंकि दिल्ली की स्थिति अधिक अनुकूल थी.

सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में इसे मंजूर कर लिया. फिर इस मामले को दिल्ली की तीस हजारी अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया, लेकिन मामला नवंबर 2004 से पहले शुरू नहीं हो सका, क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने मामले के लिए सरकारी वकील की नियुक्ति नहीं की थी.

अंतत: एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद तीस हजारी कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने इस मुकदमे के पूरा होने पर 21 मार्च 2015 को फैसला सुनाते हुए कहा कि अभियोजन द्वारा पेश किए गए सबूत अपराध दर्ज करने के लिए पर्याप्त नहीं थे, जिन अपराधों के लिए आरोपी व्यक्तियों को आरोपित किया गया था. यह देखना दर्दनाक था कि कई निर्दोष व्यक्तियों को आघात पहुंचाया गया था और उनकी जान राज्य की एक एजेंसी (पीएसी) द्वारा ली गई, लेकिन जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष दोषियों की पहचान स्थापित करने और जरूरी रिकॉर्ड लाने में विफल रहे, इसलिए मुकदमे का सामना कर रहे आरोपी व्यक्ति संदेह का लाभ पाने के हकदार हैं.

इसके साथ ही कोर्ट ने सभी आरोपियों को उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों से बरी कर दिया.

उत्तर प्रदेश सरकार ने सत्र अदालत के इस फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी और अंत में दिल्ली हाईकोर्ट ने 31 अक्टूबर 2018 को, 1987 के हाशिमपुरा मामले में हत्या और अन्य अपराधों के 16 पुलिसकर्मियों को बरी करने के निचली अदालत के फैसले को पलट दिया, जिसमें 42 लोग मार डाले गए थे.

हाईकोर्ट ने 16 पीएसी जवानों को हत्या का दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई.

दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस. मुरलीधर और जस्टिस विनोद गोयल की पीठ ने इस नरसंहार को ‘पुलिस द्वारा निहत्थे और रक्षाहीन लोगों की लक्षित हत्या’ करार दिया.

अदालत ने सभी दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कहा कि पीड़ितों के परिवारों को न्याय पाने के लिए 31 साल इंतजार करना पड़ा और आर्थिक राहत उनके नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती. सभी 16 दोषी तब तक सेवानिवृत्त हो चुके थे.

मलियाना नरसंहार
हाईकोर्ट के फैसले से हाशिमपुरा नरसंहार मामले में तो न्याय हो गया, लेकिन अभी भी कई सवालों के जवाब नहीं मिले हैं. आखिर मलियाना नरसंहार का क्या हुआ, जहां हाशिमपुरा नरसंहार के अगले दिन 23 मई, 1987 को पीएसी की 44वीं बटालियन के एक कमांडेंट आरडी त्रिपाठी के नेतृत्व में 72 मुसलमानों को मार डाला गया था?

इस हत्याकांड की एफआईआर-प्राथमिकी तो दर्ज की गई थी, लेकिन उसमें पीएसीकर्मियों का कोई जिक्र नहीं है. राज्य की एजेंसियों द्वारा की गई जांच और अभियोजन पक्ष द्वारा एक कमजोर आरोप पत्र तैयार करने के कारण इस मामले में मुकदमा अभी पहले चरण को भी पार नहीं कर पाया है.पिछले 34 सालों में सुनवाई के लिए 800 तारीखें पड़ चुकी हैं, लेकिन अभियोजन पक्ष ने 35 गवाहों में से सिर्फ तीन से मेरठ की अदालत ने जिरह की है. इस मामले में पिछली सुनवाई करीब चार साल पहले हुई थी.

यह मामला मेरठ के सत्र अदालत में विचाराधीन है. अभियोजन पक्ष की ढिलाई का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मामले की एफआईआर अचानक ‘गायब’ हो गई है. मेरठ की सत्र अदालत ने बिना एफआईआर मामले की सुनवाई के आगे बढ़ने से इनकार कर दिया है. एफआईआर-प्राथमिकी की एक प्रति और प्राथमिकी की ‘खोज’ अभी भी जारी है.

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, पीएसी 23 मई 1987 को दोपहर करीब 2:30 बजे 44वीं बटालियन के कमांडेंट आरडी त्रिपाठी सहित वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के नेतृत्व में मलियाना में घुसी और 70 से अधिक मुसलमानों को मार डाला.

तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने आधिकारिक तौर पर 10 लोगों को मृत घोषित किया. अगले दिन जिलाधिकारी ने कहा कि मलियाना में 12 लोग मारे गए, लेकिन बाद में उन्होंने जून 1987 के पहले सप्ताह में स्वीकार किया कि पुलिस और पीएसी ने मलियाना में 15 लोगों की हत्या की थी. एक कुएं में भी कई शव मिले.

27 मई 1987 को तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मलियाना हत्याकांड की न्यायिक जांच की घोषणा की. इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस जीएल श्रीवास्तव ने आखिरकार 27 अगस्त को इसका आदेश दिया. 29 मई 1987 को यूपी सरकार ने मलियाना में फायरिंग का आदेश देने वाले पीएसी कमांडेंट आरडी त्रिपाठी को निलंबित करने की घोषणा की.

दिलचस्प बात यह है कि उन पर 1982 के मेरठ दंगों के दौरान भी आरोप लगाए गए थे, लेकिन तथ्य यह है कि आरडी त्रिपाठी को कभी भी निलंबित नहीं किया गया था और उनकी सेवानिवृत्ति तक सेवा में पदोन्नति से सम्मानित किया गया था.जेलों में हिरासत में हत्याएं. विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, 1987 के मेरठ दंगों के दौरान 2,500 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया था. जिनमें से 800 को मई (21-25) 1987 के अंतिम पखवाड़े के दौरान गिरफ्तार किया गया था. जेलों में भी हिरासत में हत्या के मामले थे.

3 जून 1987 की रिपोर्ट और रिकॉर्ड बताते हैं कि मेरठ जेल में गिरफ्तार किए गए पांच लोग मारे गए, जबकि सात फतेहगढ़ जेल में मारे गए, सभी मुस्लिम थे. मेरठ और फतेहगढ़ जेलों में हिरासत में हुई कुछ मौतों की प्राथमिकी और केस नंबर अभी भी उपलब्ध हैं.

राज्य सरकार ने मेरठ जेल और फतेहगढ़ जेल की घटनाओं में दो अन्य जांच के भी आदेश दिए. फतेहगढ़ जेल में हुईं घटनाओं की मटिस्ट्रेट जांच के आदेश से यह स्थापित हुआ कि ‘जेल के अंदर हुई हाथापाई’ में अन्य स्थानों के अलावा चोटों के परिणामस्वरूप छह लोगों की मौत हो गई.


रिपोर्ट के अनुसार, आईजी (जेल) यूपी ने चार जेल वार्डन, दो जेल प्रहरियों (बिहारी लाई और कुंज बिहारी), दो दोषी वार्डन (गिरीश चंद्र और दया राम) को निलंबित कर दिया.

विभागीय कार्यवाही जिसमें स्थानांतरण शामिल है, मुख्य हेड वार्डन (बालक राम), एक डिप्टी जेलर (नागेंद्रनाथ श्रीवास्तव) और जेल के उप अधीक्षक (राम सिंह) के खिलाफ शुरू की गई थी.

इस रिपोर्ट के आधार पर मेरठ कोतवाली थाने में इन छह हत्याओं से जुड़े तीन हत्या के मामले दर्ज किए गए, लेकिन एफआईआर में कुछ अधिकारियों के जांच में आरोपित होने के बावजूद किसी नाम की सूची नहीं है, इसलिए पिछले 34 वर्षों में कोई अभियोजन शुरू नहीं किया गया था.

जस्टिस श्रीवास्तव आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई

परिणाम उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मलियाना की घटनाओं पर न्यायिक जांच की घोषणा के बाद मई 1987 के अंतिम सप्ताह में जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस जीएल श्रीवास्तव की अध्यक्षता में आयोग ने अपनी शुरुआत की.

तीन महीने बाद 27 अगस्त 1987 को कार्यवाही शुरू हुई. हालांकि मलियाना में पीएसी की निरंतर उपस्थिति से मलियाना के गवाहों से पूछताछ में बाधा उत्पन्न हुई.

अंतत: जनवरी 1988 में आयोग ने सरकार को पीएसी को हटाने का आदेश दिया. आयोग द्वारा कुल मिलाकर 84 सार्वजनिक गवाहों, 70 मुसलमानों और 14 हिंदुओं से पूछताछ की गई. साथ ही पांच आधिकारिक गवाहों से भी पूछताछ की गई, लेकिन समय के साथ-साथ जनता और मीडिया की उदासीनता ने इसकी कार्यवाही को प्रभावित किया है.

अंत में जस्टिस जीएल श्रीवास्तव की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग ने 31 जुलाई 1989 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, लेकिन इसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया.

स्वतंत्र रूप से सरकार ने 18 से 22 मई तक हुए दंगों पर एक प्रशासनिक जांच का आदेश दिया, लेकिन उन्होंने मलियाना की घटनाओं और मेरठ और फतेहगढ़ जेलों में हिरासत में हत्याओं को बाहर कर दिया.

भारत के पूर्व नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ज्ञान प्रकाश की अध्यक्षता वाले पैनल में गुलाम अहमद, एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और अवध विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति तथा आईएएस राम कृष्ण शामिल थे.

पैनल को 30 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट देने को कहा गया, जो उसने किया. इस आधार पर कि जांच एक प्रशासनिक प्रकृति की थी, जिसे अपने उद्देश्यों के लिए आदेश दिया गया था, सरकार ने अपनी रिपोर्ट विधायिका या जनता के सामने नहीं रखी. हालांकि, दैनिक अखबार द टेलीग्राफ ने नवंबर 1987 में पूरी रिपोर्ट प्रकाशित की.

अब इस रिपोर्ट के लेखक और उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक विभूति नारायण राय और पीड़ित इस्माइल द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच के समक्ष एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई है. इस्माइल ने अपने परिवार के 11 सदस्यों को मालियाना में खो दिया था.

23 मई 1987 और एक वकील एमए राशिद, जिन्होंने मेरठ ट्रायल कोर्ट में मामले का संचालन किया, ने एसआईटी द्वारा निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई और पीड़ितों के परिवारों को पर्याप्त मुआवजा देने की मांग की.

तीन दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी 1987 के दंगों के दौरान मेरठ में मलियाना हत्याकांड और हिरासत में अन्य हत्याओं के मामले में ज्यादा प्रगति नहीं हुई है, क्योंकि मुख्य अदालती कागजात रहस्यमय तरीके से गायब हो गए थे.याचिकाकर्ताओं ने यूपी पुलिस और पीएसीकर्मियों पर पीड़ितों और गवाहों को गवाही नहीं देने के लिए डराने-धमकाने का भी आरोप लगाया है. इस जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश संजय यादव और जस्टिस प्रकाश पाडिया ने 19 अप्रैल 2021 को उत्तर प्रदेश सरकार को जवाबी हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया.

इसके बाद पीठ ने कहा था, ‘शिकायत और मांगी गई राहत को ध्यान में रखते हुए हम उत्तर प्रदेश सरकार से इस रिट याचिका पर जवाबी हलफनामा और पैरा-वार जवाब दाखिल करने का आह्वान करते हैं. याचिकाकर्ताओं के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजाल्विस मामले में पेश हुए.

मलियाना नरसंहार के चश्मदीद

मलियाना के रहने वाले पत्रकार सलीम अख्तर सिद्दकी बताते हैं, ‘23 मई 1987 को लगभग दोपहर 12 बजे से पुलिस और पीएसी ने मलियाना की मुस्लिम आबादी को चारों ओर से घेरना शुरू किया था. यह घेरेबंदी लगभग ढाई बजे खत्म हुई. पूरे इलाके को घेरने के बाद कुछ पुलिस और पीएसी वालों ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरू कर दी. दरवाजा नहीं खुलने पर उन्हें तोड़ दिया गया. घरों में लूट और मारपीट शुरू कर दी.’उन्होंने आगे कहा, ‘नौजवानों को पकड़कर एक खाली पड़े प्लाट में लाकर बुरी तरह से मार-पीट कर ट्रकों में फेंकना शुरू कर दिया गया. पुलिस और पीएसी लगभग ढाई घंटे तक फायरिंग करती रही. दरअसल पीएसी हाशिमपुरा की तर्ज पर ही मलियाना के मुस्लिम नौजवानों को कहीं और ले जाकर मारने की योजना पर काम रही थी, लेकिन वहीं पीएसी की फायरिंग से इतने ज्यादा लोग मरे और घायल हुए कि पीएसी की योजना धरी रह गई. इस ढाई घंटे की फायरिंग में में 73 लोग मारे गए और दर्जनों घायल हो गए और 100 से ज्यादा घर जला दिए गए.’

मलियाना दंगों से संबंधित जो मामला मेरठ सत्र अदालत में चल रहा है उसमें मुख्य शिकायतकर्ता याकूब अली हैं.

याकूब बताते हैं, ‘23 मई 1987 के दिन जो नरसंहार मलियाना में हुआ था उसमें मुख्य भूमिका पीएसी की थी. शुरुआत पीएसी की गोलियों से ही हुई थी और दंगाइयों ने पीएसी की शरण में ही इस नरसंहार को अंजाम दिया था.’

पेशे से ड्राइवर याकूब अली इन दंगों के वक्त 25-26 साल के थे. उन्होंने ही इस मामले में एफआईआर दर्ज कराई थी. इसी रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने दंगों की जांच की और कुल 84 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया.

इस रिपोर्ट के अनुसार 23 मई 1987 के दिन स्थानीय हिंदू दंगाइयों ने मलियाना कस्बे में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों की हत्या की और उनके घर जला दिए थे.

लेकिन याकूब का कहना है कि उन्होंने यह रिपोर्ट कभी लिखवाई ही नहीं थी. वे बताते हैं, ‘घटना वाले दिन मुझे और मोहल्ले के कुछ अन्य लोगों को पीएसी ने लाठियों से बहुत पीटा. मेरे दोनों पैरों की हड्डियां और छाती की पसलियां तक टूट गई थीं. इसके बाद सिविल पुलिस के लोग हमें थाने ले गए. अगले दिन सुबह पुलिस ने मुझसे कई कागजों पर दस्तखत करवाए. मुझे बाद में पता चला कि यह एफआईआर थी जो मेरे नाम से दर्ज की गई.’इस एफआईआर में कुल 93 लोगों के नाम आरोपित के तौर पर दर्ज किए गए थे.

याकूब कहते हैं, ‘ये सभी नाम पुलिस ने खुद ही दर्ज किए थे.’

याकूब की इस बात पर इसलिए भी यकीन किया जा सकता है, क्योंकि इस रिपोर्ट में कुछ ऐसे लोगों के नाम भी आरोपित के रूप में लिखे गए थे जिनकी मौत इस घटना से कई साल पहले ही हो चुकी थी.

हालांकि याकूब यह भी मानते हैं कि इस रिपोर्ट में अधिकतर उन्हीं लोगों के नाम हैं जो सच में इन दंगों में शामिल थे, लेकिन एफआईआर में किसी भी पीएसी वाले के नाम को शामिल न करने को वे पुलिस की चाल बताते हैं.

वे कहते हैं, ‘मलियाना में जो हुआ, उसमें किसी हिंदू को एक खरोंच तक नहीं आई. वह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया नरसंहार था. इसमें मुख्य साजिशकर्ता पीएसी के लोग थे और वे आरोपित तक नहीं बनाए गए.’

मलियाना में परचून की दुकान चलाने वाले मेहराज अली बताते हैं, ‘मेरे पिता की भी उस दंगे में मौत हुई थी. उस दिन वे पड़ोस के एक घर की छत पर थे. उनके गले में गोली लगी थी. यह गोली पीएसी वालों ने ही चलाई थी. स्थानीय लोगों के पास ऐसे हथियार नहीं थे, जिनसे इतनी दूर गोली मारी जा सके.’

इस घटना के 23 साल बाद 23 मई 2010 को मलियाना के लोगों ने इस नरसंहार में मरने वालों की याद में एक कार्यक्रम किया था. इस कार्यक्रम में ज्यादातर मृतकों के परिजन और नरसंहार में घायल हुए लोग शामिल हुए. सब के पास सुनाने के लिए कुछ न कुछ था.

मोहम्मद यामीन के वालिद अकबर को दंगाइयों ने पुलिस और पीएसी के सामने ही मार डाला था. नवाबुद्दीन ने उस हादसे में अपने वालिद अब्दुल रशीद और वालिदा इदो को पुलिस और पीएसी के संरक्षण में अपने सामने मरते देखा था.

आला पुलिस अधिकारियों के सामने ही दंगाइयों ने महमूद के परिवार के 6 लोगों को जिंदा जला दिया था. शकील सैफी के वालिद यामीन सैफी की तो लाश भी नहीं मिली थी. प्रशासन यामीन सैफी को ‘लापता’ की श्रेणी में रखता है.

आज भी उस मंजर को याद करके लोगों की आंखें नम हो जाती हैं. जब कभी उस हादसे का जिक्र होता है तो लोग देर-देर तक अपनी बदकिस्मती की कहानी सुनाते रहते है.

मलियाना निवासी वकील अहमद मेरठ में दर्जी का काम करते हैं. 1987 में हुए सांप्रदायिक दंगों में पहले तो मेरठ स्थित उनकी दुकान लूट ली गई और फिर मलियाना में हुए दंगों में उन्हें गोलियां लगीं. वकील अहमद इस मुकदमे में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह हैं.

वे कहते हैं, ‘मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इस मामले में कभी भी न्याय नहीं होगा. मेरी आधी से ज्यादा उम्र इस इंतजार में बीत चुकी है और बाकी भी यूं ही बीत जाएगी.’


वकील अहमद की तरह ही रईस अहमद भी इन दंगों के एक पीड़ित हैं. दंगों में रईस को गोली लगी थी और उनके पिता की हत्या कर दी गई.

वे बताते हैं, ‘23 मई की सुबह मेरे अब्बू घर से निकले थे और फिर कभी वापस नहीं लौटे. हमें उनकी लाश तक नसीब नहीं हुई. सिर्फ यह खबर मिली कि पास में ही फाटक के पास उनकी हत्या कर दी गई थी.’

न्यायालय से अपनी नाउम्मीदी जताते हुए रईस कहते हैं, ‘न्यायालय के सामने यह मामला हमेशा ही अधूरा पेश हुआ था और इस अधूरे मामले की सुनवाई भी आज तक पूरी नहीं हो सकी. अब तो हम यह मान चुके हैं कि हमें कभी इंसाफ नहीं मिलेगा.’

मलियाना के पीड़ितों की इन टूटती उम्मीदों के कई कारण हैं. इनमें से कुछ इस मामले में चली न्यायिक प्रक्रिया को मोटे तौर पर देखने पर साफ हो जाते हैं.

1987 में हुए मलियाना दंगों की जांच मेरठ पुलिस ने लगभग एक साल में पूरी की थी. 23 जुलाई 1988 को पुलिस ने इस मामले में आरोप पत्र दाखिल किया. इस आरोप पत्र में कुल 84 लोगों को आरोपी बनाया गया था. इनका दोष साबित करने के लिए पुलिस ने 61 लोगों को अभियोजन पक्ष का गवाह बनाया, लेकिन बीते 34 साल में इनमें से सिर्फ तीन लोगों की ही गवाही हो सकी है. इनमें भी आखिरी गवाही साल 2009 में हुई थी.मलियाना के मुसलमानों को लगता है कि उन्हें न्याय नहीं मिलेगा.

पीड़ितों के वकील नईम अख्तर सिद्दीकी बताते हैं, ‘इस मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश ने लगभग दो साल पहले 2019 में एफआईआर की मूल कॉपी की मांग की थी, लेकिन यह एफआईआर रिकॉर्ड्स से गायब है. इस कारण भी यह मामला रुका पड़ा है.’

मलियाना दंगों की सुनवाई आज पहले से भी ज्यादा विकट हो चुकी है. मेरठ के ‘अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-15’ की अदालत में चल रहे इस मामले की असल कार्रवाई अब तभी आगे बढ़ेगी जब कोई नया न्यायाधीश 34 साल पुराने इस मामले को शुरुआत से समझेगा.

गायब हो चुकी एफआईआर के बिना मामले को आगे बढ़ाने की रणनीति बनाएगा और अब तक हुई कार्रवाई के आधार पर आगे की कार्रवाई के आदेश देगा. यदि यह सब संभव हुआ तब भी मलियाना के पीड़ितों को कुछ हद तक ही न्याय मिल सकता है.

मलियाना दंगों में पीएसी की भूमिका पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. साल 1988 में जब इस मामले में पुलिस द्वारा आरोप पत्र दाखिल किया गया, उससे पहले भी स्थानीय अखबारों में यह बात उठने लगी थी कि पीएसी ने स्थानीय दंगाइयों की मदद से ही मलियाना में यह खूनी खेल खेला था.

पत्रकार सलीम अख्तर सिद्दकी बताते हैं, ‘पुलिस ने जो जांच की उसमें किसी भी पीएसी वाले को आरोपी नहीं बनाया गया. जबकि इस घटना में पीएसी ने ही मुख्य भूमिका निभाई थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने तो पीएसी के एक कमांडर को इसी कारण निलंबित भी किया, लेकिन कुछ समय बाद ही यह निलंबन वापस ले लिया गया. खबर है कि जस्टिस श्रीवास्तव आयोग ने इस घटना के लिए पीएसी को ही दोषी पाया था, लेकिन वह रिपोर्ट आज तक सार्वजानिक नहीं की गई.’


वकील नईम अख्तर का कहना है, ‘मेरठ की अदालत में जो मामला चल रहा है उसमें यदि दोषियों को सजा हो भी जाए तो भी पीएसी के वे लोग कभी दंडित नहीं हो पाएंगे जो इस नरसंहार के असली गुनहगार होते हुए भी आरोपी नहीं बनाए गए. वैसे भी जिस धीमी गति से यह मामला अदालत में चल रहा है उस गति से तो आरोपितों का दंडित होना भी लगभग असंभव ही है.’

याकूब बताते हैं, ‘बीते 28 साल में कई दोषी और कई गवाह तो मर भी चुके हैं. बाकी लोग भी मेरी तरह ही इंतजार में हैं कि मौत पहले आती है या गवाही की बारी. न्याय का तो अब कोई इंतजार भी नहीं करता.’

इन दंगों के पीड़ित अब न्याय की उम्मीद तक छोड़ चुके हैं. वैसे पूरे न्याय की उम्मीद उन्हें कभी थी भी नहीं. क्योंकि 23 मई 1987 को मलियाना में जो कुछ भी हुआ था उसका पूरा सच कहीं दर्ज ही नहीं हुआ.

23 मई 1987 को हुआ मलियाना नरसंहार ऐसा कलंक है, जिसके दाग शायद ही कभी छुड़ाए जा सकें. इस कलंक का दर्द तब और बढ़ जाता है, जब नरसंहार के 34 साल भी पीड़ितों को न्याय तो दूर दोषियों को बचाने की कोशिश की जाती है.

मलियाना के लोगों का यह भी लगता है कि सरकार ने मृतक के आश्रितों को मुआवजा राशि देने में भी भेदभाव से काम लिया. उनका कहना है कि उन्हें केवल 40-40 हजार रुपये का मुआवजा दिया गया था, जो अपर्याप्त था, जबकि हाशिमपुरा के पीड़ित परिवारों को पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा दिया गया. पीड़ित परिवारों की मांग है कि हाशिमपुरा मामले की तरह उन्हें भी राहत पैकेज दिया जाए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और मलियाना नरसंहार मामले से जुड़े एक याचिकाकर्ता भी हैं.) साभार द : वायर

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जिला गाजियाबाद के प्रसिद्ध वकील सुरेंद्र कुमार एडवोकेट ने महामहिम राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री को देश में समता, समानता और स्वतंत्रता पर आधारित भारतवासियों के मूल अधिकारों और संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए लिखा पत्र