समाजवाद का मुखौटा* *किस्त नंबर -(5)* *मुस्तकीम मंसूरी*

चंद्रशेखर की सरकार लगभग 4, महीने ही चल पाई, क्योंकि चंद्रशेखर जी को सदन में कांग्रेसियों द्वारा हू हल्ला मचाने पर चंद्रशेखर जी बहुत नाराज हुए और सीधे राष्ट्रपति भवन गए और जाकर इस्तीफा दे आए, हालांकि राजीव जी क़तई नहीं चाहते थे कि चंद् शेखर जी इस्तीफा दें,

मगर उनका मत था, कि प्रधानमंत्री एक दिन का हो या एक महीने का या 10 साल का प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री होता है, लगभग 15 महीने तक ही गैर कांग्रेसी सरकार चल पाई, तभी 1991, में दौराने चुनाव राजीव गांधी की हत्या हो गई, कुछ दिन के लिए चुनाव टले उसके बाद, 1991, में ही चुनाव हुए तभी यह समाजवाद के अलमबरदार जिसने चंद्र शेखर जी के साथ जिंदगी भर साथ ना छोड़ने की क़सम खा कर अपनी सरकार ही नहीं बचाई थी, बल्कि भाजपा के लिए पूरा माहौल तैय्यार कर दिया था, 91 के चुनाव मे उन्हीं की पार्टी समाजवादी जनता पार्टी के बैनर तले एवं सजपा के चुनाव निशान चक्र में हर धरे किसान पर ही चुनाव लड़ा, चुनाव में जहां केंद्र में कांग्रेस सरकार बनी वही उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार बन गई, क्योंकि मुलायम सिंह चाहते भी यही थे, उत्तर प्रदेश से कांग्रेस को दूर रखने और खुद को स्थापित करने के लिए इसके अलावा कोई और रास्ता था भी नहीं, मुलायम सिंह के क़रीबी या ज़्यादा जो साथ रहे हैं, सब जानते हैं मुलायम का कहना है या तो हम या भाजपा, क्योंकि अगर कोई और पार्टी आई तो हम 15 साल पिछड़ जाएंगे, इसी के तहत मुलायम की राजनीति सांप्रदायिकता के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है, इसका सीधा सीधा फायदा या तो भाजपा का होता है या फिर सपा का यही कारण है कि सपा सरकार में दंगों का रास्ता खुला रहता है, और एक तरफा खुली छूट होती है, 1990 से लेकर अब तक का रिकॉर्ड तो यही बताता है, चंद्रशेखर और उनकी पार्टी के बुरे हालात देख, इस समाजवादी लोहिया के शागिर्द ने तुरंत फरारी अख्तियार कर ली, क्योंकि मुलायम को आभास हो चुका था कि चंद्रशेखर के साथ रहकर यह फरेबी राजनीति नहीं कर सकते थे, जो व्यक्ति कभी किसी सरकार में मंत्री नहीं बना हो और विचारों की राजनीति ही सारी उम्र करता रहा हो, उसके साथ माननीय मुलायम का रहना असंभव सा था, जबकि यह कथित समाजवादी, केंद्र में कांग्रेस एवं उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद समाजवादी जनता पार्टी (सजपा) की एक अहम बैठक जो बलिया में संपन्न हुई थी सम्मिलित हुए, और जिंदगी भर साथ ना छोड़ने की क़सम खाकर लोटे ही थे, मुश्किल से एक महीना भी नहीं गुजरा होगा कि इस कथित समाजवाद के अलमबरदार ने अपनी पार्टी बनाने की घोषणा कर दी, तभी स्वर्गीय पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी ने इनको सजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का न्योता दे दिया, उसके बाद भी यह लोहिया जी का शागिर्द नहीं माना और अपनी पार्टी बना डाली, अब क्योंकि वी पी सिंह, अजीत सिंह, राजीव गांधी और चंद्रशेखर को धोखा देने के बाद अलग-थलग पड़ चुके इस कथित समाजवादी ने काशीराम पर डोरे डालना शुरू किये और उस समय कई सोशलिस्ट नेताओं को बीच में डालकर बातचीत शुरू की, जिसमें कई नेता अब इस दुनिया में नहीं हैं, और इस समाजवादी ने काशीराम जी पर ऐसा जादू किया कि समझौता कर एक साथ चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लिया, अब मामला फंसा सीटों का जो बहुत ही पेचीदा मामला था, मगर कूटनीतिक हथकंडो के माहिर मुलायम सिंह ने यह भी मसला हल कर लिया, और 425 सीटों में से मात्र 100 सीटें बसपा को देकर खुद सारी सीटों पर चुनाव लड़े और सरकार बनाई लेकिन, यह गठबंधन बहुत दिनों नहीं चल पाया, क्योंकि पहले तो मुलायम सिंह ने बसपा कोटे से बने मंत्रियों के विभाग में छेड़ छाड़ शुरू की, और बलि का बकरा बने बसपा कोटे के मंत्री डॉक्टर मसूद क्योंकि यह इकलौते ऐसे मंत्री थे जो शिक्षा मंत्री बनते ही इन्होंने मुस्लिमों के लिए काम शुरू ही नहीं किया बल्कि अमली जामा पहना कर उर्दू अनुवादक एवं उर्दू शिक्षकों की सीधी भर्ती शुरू कर दी, जो मुलायम सिंह को शायद बहुत ही नागवार गुजरी तभी इन्होंने जिसके लिए वह मशहूर है अपना धोबी पाट दिखाते हुए मायावती और डॉक्टर मसूद के बीच दूरियां पैदा की, इस्तीफा हुआ, फिर डॉक्टर मसूद साहब का सामान बाहर फेंका गया और यह सब में मात्र एक सप्ताह ही मुश्किल से लगा लेकिन बसपा के नेता भी मुलायम की मंशा भांप चुके थे, तभी कुछ दिनों बाद इन से समर्थन वापस ले लिया गया, फिर वह गेस्ट हाउस कांड जिसने संविधान ही नहीं मानवता की भी धज्जियां उड़ा दी, बहरहाल हम उस विषय पर नहीं जाना चाहते, उसके बाद इन्होंने अपनी फितरत के अनुसार बसपा को तोड़ने और बर्बाद करने की भरपूर नाकाम कोशिश की, जिसको बसपा के नेता भी भाग चुके थे, यहीं पर मुलायम खुद अपने धोबी पाट में फंस गए पछाड़ खा गए, क्योंकि भाजपा ने मायावती को समर्थन देकर मुख्यमंत्री बना दिया, हालांकि भाजपा ने बसपा को समर्थन फलने फूलने के लिये नहीं बल्कि भाजपा की नजर दलित वोटों पर थी, समर्थन इसलिए दिया था, शायद अपना एजेंडा जिसके लिए वह मुलायम सिंह का इस्तेमाल करती थी मायावती से भी कराना चाहती थी यहीं पर भाजपा भी मात खा गई मायावती ने समर्थन जरुर लिया मगर भाजपा का एजेंडा नहीं लागू होने दिया और सांप्रदायिक तत्वों को भी उभरने नहीं दिया। जिसके चलते मायावती की सरकार बहुत दिनों नहीं चल सकी, और जनता पर मध्यवर्ती चुनाव थोप दिए गए। चुनाव हुए और कोई भी पार्टी--------शेष

अगली किस्त में---

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