10 मई 2021को फलस्तीनियो और इसराइली सेना के बीच क्यों हुआ संघर्ष



 हमारी ये धरती बहुत बड़ी है. तकरीबन 51 करोड़ स्क्वैयर किलोमीटर में फैली हुई है. इसके केवल 29 फीसदी हिस्से में ज़मीन है. यानी, धरती पर ज़मीन का कुल क्षेत्रफल है करीब 15 करोड़ स्क्वैयर किलोमीटर. ये फैक्ट्स पढ़कर आपको शायद लगे कि आज जिऑग्रफ़ी से जुड़े किसी टॉपिक पर बात होगी. नहीं. आज हम आपको बताएंगे, धर्म का क़िस्सा. क़िस्सा ऐसे फ़साद का, जिसका मूल है ज़मीन.कितनी ज़मीन? महज 35 एकड़ का एक प्लॉट. माने, इतनी विशाल दुनिया का दशमलव से भी कम हिस्सा. मगर ये छोटा सा प्लॉट दुनिया की सबसे विवादित जगहों में से एक है. इसलिए कि दुनिया के तीन बड़े धर्म इस प्लॉट पर दावा करते हैं. इस कन्फ्लिक्टिंग दावेदारी के चलते कई युद्ध भी हुए. लगातार तनाव बना रहा. और इसी तनाव में एक बड़ा चिंताजनक मोड़ आया 10 मई को. इस दिन दुनिया के सबसे पुराने, सबसे पवित्र माने वाले शहरों में से एक पर रॉकेट दागे गए. इसके जवाब में हुई हवाई बमबारी. और इस घटनाक्रम के चलते सबकी जान सांसत में है. दुनियाभर के नेता तनाव कम करने की अपील कर रहे हैं. ट्विटर पर दोनों गुटों के समर्थन में अलग-अलग हैशटैग चल रहे हैं. क्या है ये पूरा मामला, विस्तार से बताते हैं.मामला है जेरुसलम का. वहां शहर के पुराने हिस्से में एक पहाड़ी के ऊपर फैला एक आयताकार प्लेटफॉर्म है. इसका क्षेत्रफल है करीब 35 एकड़. इस कंपाउंड को यहूदी पुकारते हैं, हर हबायित. ये हिब्रू भाषा का शब्द है. इस नाम का प्रचलित अंग्रेज़ी संस्करण है- टेम्पल माउंट. इसी परिसर को मुस्लिम बुलाते हैं हरम-अल-शरीफ़. एक ही जगह के अलग-अलग नाम क्यों? इसकी वजह है, दोनों धर्मों की मान्यताएं. यहूदी मानते हैं कि इसी जगह पर उनके ईश्वर ने वो मिट्टी संजोई थी, जिससे ऐडम का सृजन हुआ. ऐडम माने, वो पहला पुरुष, जिससे इंसानों की भावी पीढ़ियां अस्तित्व में आईं. यहूदियों की एक और मान्यता जुड़ी है टेम्पल माउंट से. उनके एक पैगंबर थे, अब्राहम. अब्राहम के दो बेटे थे- इस्माइल और इज़ाक. एक दफ़ा ईश्वर ने अब्राहम से उनके बेटे इज़ाक की बलि मांगी. ये बलि देने के लिए अब्राहम ईश्वर की बताई जगह पर पहुंचे. यहां अब्राहम इज़ाक को बलि चढ़ाने ही वाले थे कि ईश्वर ने एक फ़रिश्ता भेजा.अब्राहम ने देखा, फ़रिश्ते के पास एक भेड़ा खड़ा है. ईश्वर ने अब्राहम की भक्ति, उनकी श्रद्धा पर मुहर लगाते हुए इज़ाक को बख़्श दिया था. उनकी जगह बलि देने के लिए भेड़ को भेजा. यहूदियों के मुताबिक, बलिदान की वो घटना इसी टेम्पल माउंट पर हुई थी. इसीलिए इज़रायल के राजा किंग सोलोमन ने करीब 1,000 ईसापूर्व में यहां एक भव्य मंदिर बनवाया. यहूदी इसे कहते हैं- फर्स्ट टेम्पल. आगे चलकर बेबिलोनियन सभ्यता के लोगों ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया.तकरीबन पांच सदी बाद, 516 ईसापूर्व में यहूदियों ने दोबारा इसी जगह पर एक और मंदिर बनाया. वो मंदिर कहलाया- सेकेंड टेम्पल. इस मंदिर के अंदरूनी हिस्से को यहूदी कहते थे- होली ऑफ़ होलीज़. माने, पवित्र से भी पवित्र. ऐसी जगह, जहां आम यहूदियों को भी पांव रखने की इजाज़त नहीं थी. केवल श्रेष्ठ पुजारी ही इसमें प्रवेश पाते थे. ये सेकेंड टेम्पल करीब 600 साल तक वजूद में रहा. सन् 70 में रोमन्स ने इसे तोड़ दिया. इस मंदिर की एक दीवार आज भी मौजूद है. इसे कहते हैं- वेस्टर्न वॉल. ये दीवार उस प्राचीन सेकेंड टेम्पल के बाहरी अहाते का हिस्सा मानी जाती है. यहूदी अपनी ये मान्यताएं तो जानते हैं. मगर उन्हें ये नहीं पता कि मंदिर का भीतरी हिस्सा, यानी वो होली ऑफ़ होलीज़, टेम्पल माउंट के किस हिस्से में स्थित था. चूंकि प्राचीन समय में आम यहूदियों को वहां जाने की छूट नहीं थी. सो कई धार्मिक यहूदी आज भी ऊपरी अहाते में पांव नहीं रखते. वो वेस्टर्न वॉल के पास ही प्रार्थना करते हैं.ये तो हुई यहूदी मान्यता. अब बात करते हैं इस मामले के दूसरे पक्ष, यानी मुसलमानों की. उनका क्या दावा है? मुस्लिमों के मुताबिक, इस्लाम की सबसे पवित्र जगहों में पहले नंबर पर है मक्का. दूसरे नंबर पर है मदीना. और तीसरे नंबर पर है, हरम-अल-शरीफ़. यानी जेरुसलम का वो 35 एकड़ का अहाता. इस इस्लामिक मान्यता का संबंध है क़ुरान से. क़ुरान के मुताबिक, सन् 621 के एक रात की बात है. पैगंबर मुहम्मद एक उड़ने वाले घोड़े पर बैठकर मक्का से जेरुसलम आए. यहीं से वो ऊपर जन्नत में चढ़े. यहां उन्हें अल्लाह के दिए कुछ आदेश मिले.क्या था इस आदेश में? इसमें बताया गया था कि इस्लाम के मुख्य सिद्धांत क्या हैं. मसलन, दिन में पांच बार नमाज़ पढ़ना. सन् 632 में पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु हुई. इसके चार साल बाद मुस्लिमों ने जेरुसलम पर हमला कर दिया. तब यहां बैजेन्टाइन साम्राज्य का शासन था. मुस्लिमों ने जेरुसलम को जीत लिया. आगे चलकर उम्मैयद खलीफ़ाओं ने जेरुसलम में एक भव्य मस्जिद बनवाई. इसका नाम रखा- अल अक्सा. अरबी भाषा में अक्सा का मतलब होता है, सब से ज़्यादा दूर. इसी अल-अक्सा मस्ज़िद के सामने की तरफ़ है, एक सुनहरे गुंबद वाली इस्लामिक इमारत. इसे कहते हैं- डोम ऑफ़ दी रॉक.मुस्लिम मानते हैं कि सदियों पहले उस रात को उड़ने वाले घोड़े पर सवार पैगंबर मुहम्मद ने जेरुसलम में पहली बार जहां पांव रखा, उसी जगह पर है अल-अक्सा मस्जिद. और, जिस जगह से उठकर वो उस रात जन्नत चढ़े थे, वहीं पर है डोम ऑफ रॉक. और ये दोनों इमारतें जेरुसलम में कहां हैं? उसी 35 एकड़ वाले आयताकार कंपाउंड के भीतर, जिसे यहूदी अपने प्राचीन मंदिरों की लोकेशन मानते हैं. अब आपको इस लोकेशन को लेकर बने झगड़े की वजह समझ आ गई होगी.जवाब है, इट्स कॉम्प्लिकेटेड. कैसे, ये जानने के लिए फिर से हिस्ट्री बांचनी पड़ेगी. इतिहास में एक दौर हुआ क्रूसेड्स का. क्रूसेड माने, होली वॉर. ऐसे युद्ध, जो धर्म के आधार पर लड़े गए. ये क्रूसेड्स हुए ईसाइयों और मुस्लिमों के बीच. क्या थी इसकी वजह? जब इस्लाम का विस्तार शुरू हुआ, तो इस्लामिक साम्राज्य ने ईसाइयों द्वारा पवित्र मानी जाने वाली कई जगहों को जीत लिया. जेरुसलम भी इनमें से एक था. ये बात चर्च को असहनीय थी. इसलिए कि जेरुसलम उन्हें भी बहुत अजीज़ था. ईसाई धर्म में जेरुसलम की क्या वैल्यू थी? ईसाई मानते हैं कि ईसा मसीह ने इसी शहर में अपना उपदेश दिया. यहीं उन्हें सूली चढ़ाया गया और यहीं पर वो दोबारा जी उठे. ईसाई ये भी मानते हैं कि एक रोज़ ईसा वापस दुनिया में लौटेंगे. और उनकी इस सेकेंड कमिंग में जेरुसलम का अहम किरदार होगा.अब इन सारी मान्यताओं की क्रोनोलॉजी देखिए. सबसे प्राचीन मान्यता है यहूदियों की. सबसे प्राचीन इसलिए कि क्रिश्चिएनिटी और इस्लाम, दोनों यहूदी धर्म के बाद आए. यहूदियों पर हमला किया रोमन्स ने. उन्होंने जेरुसलम पर कंट्रोल कर लिया. फिर आए मुसलमान. उन्होंने जेरुसलम को अपने कंट्रोल में लेकर यहां धार्मिक इमारतें बनवाईं. फिर आगे चलकर ईसाइयों और मुस्लिमों में धर्मयुद्ध शुरू हुआ. इसमें पहला ही युद्ध जेरुसलम के लिए लड़ा गया. इस फर्स्ट क्रूसेड के तहत जुलाई 1099 में ईसाइयों ने जेरुसलम को जीत लिया. मगर ये जीत ज़्यादा समय तक बरकरार नहीं रही. 1187 में मुस्लिमों ने जेरुसलम को वापस हासिल कर लिया. उन्होंने हरम-अल-शरीफ़ का प्रबंधन देखने के लिए वक़्फ, यानी इस्लामिक ट्रस्ट का गठन किया. पूरे कंपाउंड का कंट्रोल इसी ट्रस्ट के हाथ में था. यहां ग़ैर-मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी.सदियों तक ऐसी ही व्यवस्था बनी रही. फिर आया 1948 का साल. इस बरस गठन हुआ, इज़रायल का. उसी ज़मीन पर, जहां फ़िलिस्तिनियों का देश था. फ़िलिस्तीन और इज़रायल, दोनों के अपने-अपने दावे थे. फ़िलिस्तीन का कहना था कि हमारे देश में दूसरा देश कैसे बनेगा? उनकी मांग थी कि कहीं और बनाया जाए यहूदी देश. मगर यहूदी इसके लिए राज़ी नहीं थे. उनका कहना था कि वो कहीं और क्यों जाएंगे. ये ज़मीन तो उनके पुरखों की है. उन्हें सदियों तक उस ज़मीन से बेदखल रखा गया. अब उन्हें अपनी ज़मीन वापस चाहिए.इस दावे पर बतौर सबूत इज़रायल का आधार है, एक धर्मग्रंथ. जिसका नाम है, हिब्रू बाइबल. इस बाइबल का पहला हिस्सा कहलाता है- बुक ऑफ़ जेनेसेज़. इसके एक भाग का नाम है- कवेनंट बिटविन गॉड ऐंड अब्राहम. माने, ईश्वर और अब्राहम के बीच हुआ करार. कैसा क़रार? यहूदियों के मुताबिक, उसके पूर्वज अब्राहम पहले मेसोपोटामिया में रहा करते थे. ईश्वर के आदेश पर वो अपना घर-बार छोड़कर नई जगह पहुंचे. ये जगह पश्चिमी एशिया में थी. इसे तब कहते थे- लैंड ऑफ़ केनन.यहूदी मान्यता के अनुसार, इस जगह के लिए ख़ुद ईश्वर ने अब्राहम को अपनी ज़ुबान दी थी. कहा था, अब्राहम की संतान यहीं पर एक नया देश बसाएगी. हमने आपको अब्राहम के बेटे इज़ाक की कहानी सुनाई थी न. उन्हीं इज़ाक के बेटे का नाम था- जैकब. इन्हीं जैकब का एक नाम था- इज़रायल. जैकब उर्फ़ इज़रायल के 12 बेटे हुए. वो कहलाए, टूऐल्व ट्राइब्स ऑफ़ इज़रायल. इन्हीं कबीलों की पीढ़ियों ने आगे चलकर बनाया यहूदी देश. वो देश, जिसका प्राचीन नाम था लैंड ऑफ़ इज़रायल. माने, इज़रायल और उनके वंशजों की भूमि. मॉडर्न इज़रायल की दावेदारी भी इसी प्राचीन मान्यता पर आधारित है.ये तो हुई इज़रायल के गठन की कहानी. अब ज़ूम करके आते हैं, जेरुसलम पर. इज़रायल जेरुसलम को अपनी राजधानी बनाना चाहता था. क्योंकि उसकी पवित्रतम जगहें, उसका टेम्पल माउंट यही हैं. मगर जेरुसलम और टेम्पल माउंट पर अधिकार मिलना इतनी साधारण बात नहीं थी. यहूदियों की ही तरह दुनियाभर के मुसलमानों की भी आस्था जुड़ी थी इससे. मुसलमान पहले ही इज़रायल के गठन का विरोध कर रहे थे. ऐसे में जेरुसलम और टेम्पल माउंट का कंट्रोल अगर इज़रायल को मिल जाता, तो भयंकर खून-ख़राबा होता.साथ ही, ये मुस्लिमों के प्रति पक्षपात भी होता. सवाल उठता कि एक समुदाय की धार्मिक मान्यता को दूसरे समुदाय की आस्था से ऊपर कैसे रखा गया? इसीलिए संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में दुनिया के बड़े देशों ने एक मसौदा बनाया. इसे कहते हैं, पार्टिशन रेजॉल्यूशन. इसमें प्रस्ताव दिया गया कि फ़िलिस्तीन को दो भाग में बांट दिया जाए. एक हिस्सा यहूदियों का. दूसरा, फिलिस्तीनियों का. और जेरूसलेम पर क्या प्रस्ताव दिया गया? मसौदे के मुताबिक, जेरुसलम पर इंटरनैशनल कंट्रोल की बात कही गई. और इस कंट्रोल का पहरेदार UN ने ख़ुद को बनाया.इज़रायल मसौदे पर राज़ी था. मगर अरब मुल्कों ने इसे खारिज़ कर दिया. दोनों पक्षों के बीच संघर्ष हुआ. इसी संघर्ष का एक अध्याय था, 1967 का सिक्स डे वॉर. इस युद्ध में इज़रायल की जीत हुई. और इसके साथ ही टेम्पल माउंट के कंट्रोल में भी एक बड़ा बदलाव हुआ.आपको याद है, हमने बताया था कि टेम्पल माउंट उर्फ़ हरम-अल-शरीफ़ परिसर का प्रबंधन वक़्फ बोर्ड के हाथ में था. 1948 में इज़रायल के गठन के बाद भी उनका कंट्रोल बना रहा. यहां ग़ैर-मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी. मगर 1967 के युद्ध में इज़रायल ने फिलिस्तीनी कंट्रोल के कई इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया. इस अधिकृत हिस्से में टेम्पल माउंट भी था.इज़रायल ने इस इलाके को जीत तो लिया, मगर उसने पवित्र परिसर के कंट्रोल में बदलाव नहीं किया. उस समय इज़रायल के रक्षामंत्री थे, मोशे डायन. उन्होंने टेम्पल माउंट को लेकर मुस्लिम नेताओं से वार्ता की. दोनों पक्षों के बीच एक समझौता हुआ. इसके मुताबिक, टेम्पल माउंट के प्रबंधन का अधिकार जॉर्डन को दे दिया गया. वो इसका कस्टोडियन बना गया. इस समझौते में एक बड़ा बदलाव ये हुआ कि अब यहूदियों को भी इस परिसर में प्रवेश की अनुमति मिल गई. लेकिन केवल पर्यटक के तौर पर. वो कंपाउंड में आ तो सकते थे, मगर यहां पूजा-पाठ नहीं कर सकते थे.नहीं. दोनों तरफ़ के कट्टरपंथी इससे नाख़ुश थे. कट्टरपंथी मुस्लिम इस परिसर में ग़ैर-मुस्लिमों के घुसने तक से नाराज़ थे. वहीं कट्टरपंथी यहूदी कहते थे कि उनको टेम्पल माउंट में प्रार्थना का अधिकार मिले. इसी कट्टरपंथ का एक नतीज़ा सामने आया 1982 में. इस बरस ऐलन गुडमैन नाम का एक इज़रायली सैनिक पवित्र परिसर में स्थित ‘डोम ऑफ़ दी रॉक’ में घुस गया. उसने मशीनगन से फायरिंग शुरू कर दी. इस वारदात में दो लोग मारे गए.इस घटना के बाद यहूदियों और मुस्लिमों के बीच भी तनाव बढ़ा. होता ये कि जब यहूदी परिसर के पास वेस्टर्न वॉल के पास प्रार्थना करते, तो कई बार परिसर के भीतर से मुस्लिम उनपर पत्थर फेंकते. इसके चलते यहूदियों में भी टेम्पल माउंट पर अपना दावा मज़बूत करने की ज़िद बढ़ती गई. इसी दावे का एक मशहूर एपिसोड साल 2000 में सामने आया. इस बरस इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरन ख़ूब भारी-भरकम सुरक्षा के बीच टेम्पल माउंट पहुंचे. मकसद था, इज़राल का अधिकार स्थापित करना. इस प्रकरण के चलते ख़ूब फ़साद हुआ. जेरुसलम में ख़ूब दंगा हुआ.आगे के बरसों में भी टेम्पल माउंट के इर्द-गिर्द तनाव बना रहा. छिटपुट संघर्ष और ज़ोर आजमाइश की वारदातें भी होती रहीं. इनमें बड़ा पॉइंट आया 2014 के आख़िर में. हुआ ये कि एक यहूदी कट्टरपंथी था. यहूदियों के उस धड़े का हिस्सा, जो टेम्पल माउंट पर इज़रायली कंट्रोल की मांग करता है. एक फिलिस्तीनी ने गोली मारकर उसकी हत्या करने की कोशिश की. हत्या की कोशिश तो नाकाम रही, मगर वो फिलिस्तीनी इज़रायली फोर्सेज़ के हाथों मारा गया. इसपर फिलिस्तीनी उबल पड़े. दोनों पक्षों के बीच हिंसक झड़पें शुरू हो गईं. तनाव के चलते इज़रायल ने कुछ समय के लिए मुस्लिमों के टेम्पल माउंट में घुसने पर पाबंदी लगा दी. फिलिस्तीनी लीडरशिप ने इसे जंग का ऐलान माना.इसके बाद से ही फिलिस्तीनी इस परिसर को लेकर बेहद सशंकित रहते हैं. उनको लगता है कि इज़रायल इसपर कब्ज़ा करने की तैयारी कर रहा है. यहूदी कट्टरपंथी भी इस आशंका को हवा देते रहते हैं. अब आप पूछेंगे कि ये सारा इतिहास हम आज क्यों बता रहे हैं? क्योंकि एकबार फिर इस पवित्र परिसर और जेरुसलम के इर्द-गिर्द संघर्ष तेज़ हो गया है.इसकी जड़ में है जेरुसलम शहर का पूर्वी हिस्सा. ये कहलाता है, ईस्ट जेरुसलम. ये फिलिस्तीनी बसाहट का एरिया है. यहां एक इलाका है- शेख जराह. करीब दो सदी पुरानी बात है. तब, जब फिलिस्तीन पर ऑटोमन साम्राज्य का अधिकार था. उसी समय से कुछ यहूदी संगठन फिलिस्तीनी में ज़मीन खरीदने लगे थे. इसी कड़ी में 1876 के साल दो यहूदी ट्रस्ट ने कुछ अरब ज़मींदारों से शेख ज़राह में ज़मीनें खरीदीं. 1948 में जब इज़रायल का गठन हुआ, तब युद्ध छिड़ा. इसमें जॉर्डन ने ईस्ट जरुसलम पर कब्ज़ा कर लिया. इस दौर में जॉर्डन ने यहां कई सारे मकान बनाए. ये मकान उन फिलिस्तीनी शरणार्थियों के लिए थे, जो इज़रायल के गठन के बाद उसके इलाकों से भागकर ईस्ट जरुसलम आए थे.फिर 1967 के युद्ध में इज़रायल ने ईस्ट जरुसलम पर कब्ज़ा कर लिया. अब शेख जराह के वो शरणार्थियों वाले घर की ओनरशिप फिर से यहूदी ट्रस्ट्स को सौंप दी गई. उन ट्रस्टों ने ज़मीन यहूदी सेटलर्स को बेच दी. इन सेटलर्स ने फिलिस्तीनियों से घर खाली करने को कहा. इसपर काफ़ी विवाद हुआ. काफी हंगामे के बाद 1982 में इलाके के फिलिस्तीनी निवासियों ने यहूदी सेटलर्स से समझौता किया. इसके तहत फिलिस्तीनियों ने उस ज़मीन पर यहूदी सेटलर्स का मालिक़ाना हक़ मान लिया. बदले में उन्हें किरायेदार की हैसियत से वहां रहने का अधिकार मिला.लेकिन क्या ये समझौता बरक़रार रहा? नहीं. आगे चलकर फिलिस्तीनियों ने कहा कि उनके साथ चालाकी हुई है. इसीलिए वो ये समझौता नहीं मानेंगे. इसी विवाद से जुड़ा एक प्रकरण मौजूदा तनाव की जड़ है. ये मामला जुड़ा है, शेख जराह में रह रहे छह फिलिस्तीनी परिवारों से. यहूदी सेटलर्स पुराने समझौते का हवाला देकर उनका घर खाली करवाना चाहते थे. मगर इन परिवारों ने कहा कि वो प्रॉपर्टी क्यों खाली करें, जब ज़मीन पुश्तैनी तौर पर उनकी है. इस दावे के समर्थन में ये लोग ऑटोमन काल के कुछ भूमि दस्तावेज़ ले आए.मामला पहुंचा कोर्ट में. यहां यहूदियों ने कहा कि ये ज़मीन को प्राचीन काल से ही यहूदियों की है. इसपर यहूदियों का सनातन अधिकार है. कोर्ट ने इस केस में यहूदी सेटलर्स के दावे को माना. फिलिस्तीनी परिवारों से घर खाली करने को कहा गया. बस, यहीं से चिंगाड़ी भड़क उठी. एक तरफ इस मामले की सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई. दूसरी तरफ़ फिलिस्तीनी अपनी दावेदारी को बल देने के लिए लामबंद हो गए.इस झगड़े का प्लॉट कई दशकों से तैयार हो रहा था. 1967 के युद्ध में जीत के बाद से ही इस इलाके में इज़रायली सेटलर्स की संख्या बढ़ने लगी थी. इज़रायली कहते थे कि ये इलाका एक प्राचीन यहूदी पुजारी के मकबरे के पास बसा था. माने, ये उनके लिए पवित्र है. उनका इलाका है. इज़रायलियों ने यहां रहने वाले फिलिस्तीनियों को अतिक्रमणकारी कहना शुरू किया. यहूदियों द्वारा पेश किए गए इस नरेटिव के चलते ईस्ट जरुसलम का इलाका दोनों पक्षों के आपसी तनाव का एक बड़ा केंद्र बन गया. फिलिस्तीनियों का आरोप है कि यहूदी जेरुसलम शहर के पुराने हिस्सों पर कब्ज़ा करने में लगे हैं. इसीलिए अरबों को जबरन अपनी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है. उनके नस्लीय सफ़ाये की कोशिश हो रही है.यही वजह है कि उन छह परिवारों के एविक्शन को फिलिस्तीनियों ने अपने अस्तित्व और हक़ की लड़ाई माना. 10 मई को सुप्रीम कोर्ट में इस केस की फाइनल सुनवाई होनी थी. इससे पहले दोनों पक्षों की सरगर्मियां बढ़ गईं. यहूदी कट्टरपंथी ‘अरब मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हुए जेरुसलम के फिलिस्तीनी आबादी वाले इलाकों में रैलियां निकालने लगे. उन्होंने फिलिस्तीनी घरों और दुकानों को भी नुकसान पहुंचाया. जवाब में फिलिस्तीनी भी पीछे नहीं रहे.पिछले करीब एक हफ़्ते से सैकड़ों फिलिस्तीनी हर रात शेख जराह में जमा होते. वहीं सड़क पर इफ़्तार करते. नाचते, गाते, नारे लगाते. इस दौरान इज़रायली फोर्सेज़ से साथ भी उनकी झड़पें होती रहीं. इज़रायली फोर्सेज़ ने कभी बल प्रयोग करके प्रोटेस्टर्स को खदेड़ा. तो कभी उनपर ‘स्कंक वॉटर’ की बौछार की. ये स्कंक वॉटर क्या चीज है? ये लिक्विड पानी और बेकिंग पाउडर को मिलाकर बनाया जाता है. ये इतना बदबूदार होता है कि अगर चमड़ी पर पड़े, तो कई दिनों तक बदबू नहीं जाती.ये संघर्ष पीक पर पहुंचा 10 मई को. इस रोज़ इज़रायल के लोग ‘जरुसलम डे’ मनाते हैं. ये 1967 के युद्ध में जरुसलम पर इज़रायली कब्ज़े के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. इस मौके पर इज़रायली शहर के अलग-अलग हिस्सों में रैलियां निकालते हैं. फिलिस्तीनियों को आशंका थी कि कहीं यहूदी टेम्पल माउंट में घुसने की कोशिश ना करें. इसी आशंका के मद्देनज़र फिलिस्तीनी प्रोटेस्टर्स 10 मई की सुबह से ही अल-अक्सा मस्ज़िद में मौजूद थे.सुबह के तकरीबन आठ बजे की बात है. इज़रायली फोर्स मस्ज़िद कंपाउंड में घुस गई. फिलिस्तीनी पत्थरबाज़ी कर रहे थे और इज़रायली फोर्स उनपर स्टन ग्रेनेड्स और रबड़ बुलेट्स दाग रही थीं. संघर्ष की शुरुआत को लेकर दोनों पक्षों के अपने दावे हैं. फिलिस्तीनियों का आरोप है कि इज़रायली पुलिस ने मस्ज़िद के भीतर स्टन ग्रेनेड्स और रबड़ बुलेट्स दागीं. आंसू गैस छोड़ा. वहीं इज़रायली पुलिस का इल्ज़ाम है कि वो मस्ज़िद के पास वाली सड़क पर थे, जब मस्ज़िद के भीतर से उनके ऊपर पत्थर फेंके गए. उनके मुताबिक, इसके बाद वो कंपाउंड में दाखिल हुए. फिलिस्तीन के मुताबिक, इस हिंसा में उनके 300 से ज़्यादा लोग घायल हुए. इज़रायली पुलिस के अनुसार, हिंसा में उसके भी नौ अधिकारी जख़्मी हुए हैं. इस झड़प के बाद बवाल मच गया. इज़रायली फोर्सेज़ की मस्ज़िद में एंट्री और वहां की गई कार्रवाई को फिलिस्तीनी लीडरशिप ने भीषण अपराध माना. वहीं इज़रायली फोर्सेज़ ने अल-अक्सा को खाली करवाकर उसके दरवाज़े बंद करवा दिए. फिलिस्तीनियों का कहना है कि इज़रायली फोर्सेज़ ने मस्ज़िद की सभी चाभियां भी अपने कंट्रोल में ले लीं.अमेरिका और यूरोप समेत कई देशों ने सभी पक्षों से शांति बनाने की अपील की. मगर शांति आई नहीं. फिलिस्तीन का एक चरमपंथी गुट है- हमास. उसने इज़रायल को चेतावनी दी. कहा कि 10 मई .की शाम 6 बजे तक इज़रायली फोर्सेज़ टेम्पल माउंट और शेख़ जराह इलाका खाली कर दें. वरना वो इज़रायल पर हमला करेगा. इसके बाद ख़बर आई कि हमास ने इज़रायल पर 150 से भी ज़्यादा रॉकेट दागे हैं. इनमें से कुछ रॉकेट जरुसलम पर भी दागे गए.2014 के बाद ये पहली बार है, जब हमास ने जरुसलम पर रॉकेट फायर किया हो. जवाबी प्रतिक्रिया में इज़रायल ने लॉन्च किया- ऑपरेशन गार्डियन ऑफ़ दी वॉल्स. इसमें वॉल का मतलब वेस्टर्न वॉल है. इस ऑपरेशन के तहत इज़रायल ने फिलिस्तीनी इलाकों पर हवाई हमला किया. 11 मई की सुबह तक इजरायल कम-से-कम 130 एयरस्ट्राइक कर चुका था. ख़बरों के मुताबिक, इज़रायली हमले में कम-से-कम 23 लोगों की मौत हुई है. इनमें नौ बच्चे भी शामिल हैं. इसके अलावा 100 से भी ज़्यादा फिलिस्तीनियों के भी घायल होने की ख़बर है.इस हालिया संघर्ष ने फिलिस्तीन और इज़रायल के आपसी तनाव को और बढ़ा दिया है. तनाव इज़रायल से दूर बाकी देशों में भी दिख रहा है. इंटरनेट पर भी लोग बंट गए हैं. कोई इज़रायल के सपोर्ट में हैशटैग चला रहा है, कोई फिलिस्तीन की तरफ से अपील कर रहा है. मगर कुल मिलाकर देखिए, तो इस प्रकरण में सिवाय निराशा के और कुछ नहीं. पिछले 10 बरसों से दोनों पक्षों के बीच शांति वार्ता ठप है. फिलिस्तीनी लीडरशिप बंटी हुई है. फिलिस्तीनियन नैशनल अथॉरिटी और हमास के बीच दरार है. ऊपर से जब हमास हिंसा करता है, तो आम फिलिस्तिनियों का पक्ष कमजोर नजर आता है उधर इज़रायल का पक्ष भी बेहद कमज़ोर है. शेख जराह के छह फिलिस्तीनी परिवारों के केस को इज़रायली नेतृत्व प्रॉपर्टी विवाद का नाम दे रहा. उनका कहना है कि जो होगा, क़ानूनन होगा. मगर जब फिलिस्तीनी इलाकों पर अवैध इज़रायली कब्ज़े की बात हो, तब इज़रायल को क़ानून याद नहीं आता. 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