समंदर के सांचों में लहर बेचते हैं लोग
समंदर के सांचों में लहर बेचते हैं लोग
गांव में रहते हैं मगर शहर बेचते हैं लोग।
गुनाह कर दिया तिज़ारत को आजकल,
समन्दर के सांचों में लहर बेचते हैं लोग।
ज़िन्दगी या मौत से उनका मतलब नहीं,
जेब अपने भरने को ज़हर बेचते हैं लोग।
तुम लाओगे भी क्या, बाज़ार में जा कर,
सुबह मिलती नहीं दोपहर बेचते हैं लोग।
पानी की प्यास तक भी दम तोड़ने लगी,
कैसे कहूं कि दूध की नहर बेचते हैं लोग।
खुशनसीबी मानिए कि सहरा में आ गए,
वरना तो मक़्तल की ठहर बेचते हैं लोग।
किसलिए लिखते हो आज़ाद ग़ज़ल तुम,
ज़फ़र चंद सिक्कों में बहर बेचते हैं लोग।
ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ़-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
zzafar08@gmail.com
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