सांप लिपटे हैं मगर जैसे संदल उन्हीं का है


 सांप लिपटे हैं मगर जैसे संदल उन्हीं का है




सियासत की भागदौड़ में दंगल उन्हीं का है,

जो जूझते हैं लम्हा लम्हा मंगल उन्हीं का है।


अपने शेर क्या सो गए, गफ़लत की नींद में,

कुछ कुत्ते समझते हैं कि जंगल उन्हीं का है।


कल बोए थे पेड़ किसने मालूम नहीं उनको,

सांप लिपटे हैं मगर जैसे संदल उन्हीं का हैं।


उसकी हिम्मत नहीं थी कि जड़ों को काट दे,

ये कुल्हाड़ी में घुसा दस्ता डंठल उन्हीं का है।


तुम क़ातिल को बचा दो अलग बात है मगर,

ये लिपटी है लाश जिसमें कंबल उन्हीं का है।


सारे फूल हैं कांटे हैं या कलियां हैं चमन की,

ये रिश्ता तो तितलियों से चंचल उन्हीं का है।


ज़फ़र किसकी मज़ाल थी कि दंगा करे कोई,

सत्ता में जो अकड़े बैठे हैं संबल उन्हीं का है।


-ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

एफ़-413,

कड़कड़डूमा कोर्ट,

दिल्ली-32

zzafar08@gmail.com

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