मेरे साहब बिगड़े तो कटघरे में रहूंगा
मेरे साहब बिगड़े तो कटघरे में रहूंगा
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कब तक दुश्मनों के आसरे में रहूंगा,
ये सोचता हूं चलकर आगरे में रहूंगा।
क़िस्मत बदलती है ये उम्मीद है मुझे,
मैं भी ज़रूर लोगों के मश्वरे में रहूंगा।
कोई अच्छाई ना सही बुराई ही सही,
किसी तरह तो उसके तप्सरे में रहूंगा।
या तो मन की बात को मान लूं वरना,
मेरे साहब बिगड़े तो कटघरे में रहूंगा।
कभी तो समझ आएगा फ़र्क भीड़ में,
तुम गोडसे में रहो मैं करकरे में रहूंगा।
सियासत को कभी चुनना पड़ा अगर,
दल कोई भी हो चाहे चरपरे में रहूंगा।
ज़फ़र क़ब्र का हाल तो मुर्दा ही जाने,
किसको ख़बर है कि मक़बरे में रहूंगा।
ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ़-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
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